यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

सोमवार, 23 अगस्त 2010

केंद्र सरकार तो जनता के द्वारा नकार दिए गए लोगों को भी 20 हजार रूपये प्रति माह देने को तैयार

सांसद वेतन वृद्घि के लिए जो कारण गिना रहे हैं, वे कारण कितने जायज हैं
या नाजायज यह सबके लिए सोच का अलग अलग नजरिया हो सकता है लेकिन एक बात तो
साफ है कि वेतन के मामले में नौकरशाही से कम वेतन लेना उन्हें अपनी शान
के विरूद्घ लग रहा है। मन के किसी न किसी कोने में यह हीन भावना भी घर कर
गयी है कि नौकरशाह उनसे वेतन के तो मामले में कम से कम ऊंचे हैं, ही।
नौकरशाह भले ही सांसदों को सर, सर कहकर सम्मान करते हों लेकिन अधिक वेतन
लेकर वे सांसदों को नीचा ही दिखाते हैं। यह बात दूसरी है कि नौकरशाहों का
वेतन भी संसद ही तय करती है। उनके लिए वेतन आयोग बनाया जाता है और वेतन
आयोग की सिफारिशों को सरकार जितना चाहे उतना स्वीकार करती है। तब संसद से
वेतनवृद्घि का प्रस्ताव पारित कर नौकरशाहों का वेतन बढ़ाया जाता है।
लालूप्रसाद यादव के मन की टीस संसद में अभिव्यक्त होती है कि जूनियर
क्लर्क से भी कम वेतन सांसदों को मिलता है। इसके बावजूद सांसदों की धन
संपत्ति में दिन दुगना रात चौगुना वृद्घि होती है। 542 सांसदों में से
300 करोड़पति हैं। 2004 के लोकसभा चुनाव में जो लखपति थे वे 2009 के
चुनाव में करोड़पति हो गए। नौकरशाहों के घर पर तो सरकार छापा भी डलवाती
है और करोड़ों की काली कमायी पकड़ी जाती है लेकिन किस सांसद के घर पर
छापा पड़ता है। सदनों में प्रश्र पूछने तक के तो पैसे मिलते हैं। लोकसभा
क्षेत्र पर खर्च करने के लिए 5 वर्षों में करोड़ों रूपये सरकार देती है।
फिर भी गरीब की तरह महंगाई का रोना सांसद रोते हैं। सरकार भी सांसदों के
दबाव में आ जाती है और तीन गुणा वेतनवृद्घि के बाद और बढ़ाने के लिए
पुनर्विचार पर राजी हो जाती है। सरकार राजी तो सांसद लोकसभा की कार्यवाही
चलने देने के लिए राजी और सरकार राजी नहीं तो सदन की कार्यवाही नही  चलने
देंगे।

50 हजार रूपये वेतन वृद्घि के लिए तो  केंद्र सरकार तैयार ही है और
उम्मीद की जा रही है कि 10-15 हजार रूपये और बढ़ सकता है। अधिक जिद
करेंगे तो 80 हजार एक रूपया भी सरकार कर देगी। सत्र के दौरान प्रतिदिन
उपस्थित होने पर जो भत्ता 1 हजार रूपये मिलता था, उसे भी सरकार दो हजार
करने के लिए तैयार है। अन्य भत्तों को  भी दोगुना करने की मंशा   सरकार ने
स्पष्ट कर दी है। राम जी की चिडिय़ा राम जी का खेत, चुग जा रे चिडिय़ा भर
भर पेट। जब सांसदों का वेतन भत्ता बढ़ रहा है तो राज्य सरकारों पर भी
विधायक दबाव बनाएंगे ही। छत्तीसगढ़ में तो अजीत जोगी ने मांग भी कर दी है
कि नौकरशाहों से विधायकों का वेतन अधिक होना चाहिए। केंद्र में कांग्रेस
की सरकार है तो विपक्षी सांसद वेतन वृद्घि की मांग  कर रहे हैं। छत्तीसगढ़
में भाजपा की सरकार है तो कांग्रेसी विधायक मांग  कर रहे हैं। अगले सत्र
में निश्चित ही विधानसभा में यह मांग  उठेगी।

केंद्र सरकार अपने लोगों को जो भी सुविधा वेतन भत्ते के नाम पर देगी, वह
देना राज्य सरकार की तो मजबूरी बन जाती है। केंद्र सरकार ने अपने
कर्मचारियों को छठवां वेतन आयोग की सिफारिशों से नवाजा तो छत्तीसगढ़ को
भी अपने कर्मचारियों के वेतन भत्ते में वृद्घि करनी पड़ी। अभी भी स्थानीय
संस्थाओं के वे कर्मचारी जिन्हें इसका लाभ नहीं मिला है, मांग  कर ही रहे
हैं। केंद्र सरकार के आय के श्रोतों की तुलना राज्य सरकार के आय के
श्रोतों से नहीं की जा सकती। स्थानीय संस्थाओं के आय की तुलना तो राज्य
सरकार से नहीं की जा सकती लेकिन जहां तक कर्मचारी का संबंध है तो सभी
कर्मचारी ही है। फिर सरकार का क्षेत्र अलग अलग हो लेकिन है तो किसी न
किसी रूप में सरकार। जब बड़ी सरकार देती है तो छोटी सरकार के कर्मचारी भी
आशान्वित होते हैं। केंद्र  सरकार के पास आय के इतने श्रोत हैं कि उसे
स्वयं विचार करना चाहिए कि जब वह अपने कर्मचारियों को कोई भी सुविधा देती
है तो उसका राज्य सरकारों और संबंधित संस्थानों पर क्या असर पड़ेगा ? उसे
जिम्मेदारी उठाना चाहिए कि राज्य सरकारों पर जो बोझ पड़ेगा, उसे वह
उठाएगी। सोच का दायरा यह नहीं होना चाहिए कि हमारे कर्मचारियों की हम
जानें और तुम्हारे कर्मचारियों की तुम जानो।

जब काश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है तो केंद्र सरकार के कर्मचारियों
की ही नहीं, राज्य सरकार के कर्मचारियों की भी जिम्मेदारी केंद्र सरकार
पर है। केंद्र सरकार को तो सबकी चिंता करना चाहिए। जब सांसदों के
वेतनवृद्घि को केंद्र सरकार ने स्वीकार कर लिया है तब उसने यह नहीं सोचा
कि राज्य सरकारों पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा ? केंद्र सरकार को अपनी
चिंता है। उसका काम शांतिपूर्वक चलना चाहिए। उसका काम सांसदों को प्रसन्न
रखने तक ही है। सरकार के खजाने पर वेतन वृद्घि का जो असर पड़ेगा, वह या
तो आय में वृद्घि कर प्राप्त किया जाएगा या फिर किसी मद में कटौती कर।
सरकार की जिम्मेदारी 542 सांसदों की चिंता करना है या देश के 120 करोड़
लोगों की। इनमें भी 70 प्रतिशत से अधिक लोगों की जिनका हाल महंगाई ने
खराब कर रखा है।

यह वेतन वृद्घि सांसदों के बाद विधायकों, पार्षदों, सरपंचों, पंचों तक
जाएगी। ये सभी जनता के सेवक कहलाते हैं। राजनीति इनके लिए सेवा का अवसर
है। सेवा करने से मेवा मिलता है। यह उक्ति चरितार्थ हो रही है। सेवा करने
का फल तो भगवान देता था लेकिन अब सेवक स्वयं ही सरकार से सेवा का फल
वसूलने के लिए कृतसंकल्पित हैं। इस सबकी जड़ महंगाई है। आज से 38 वर्ष
पूर्व जब बड़े बड़े अधिकारियों, नेताओं को हजार रूपये से भी कम वेतन
मिलता था तब सभी मजे में थे। त्याग और सादगी की भावना भी राजनीति से लेकर
नौकरशाहों में थी। तब सबसे ज्यादा वेतन दस हजार रूपये राष्ट्रपति  को
मिला करते थे। बड़ी बड़ी व्यापारिक कंपनियां भी अपने बड़े बड़े ओहदेदारों
को दस हजार रूपये से कम वेतन देती थी।  कारण था राष्ट्रपति  का सम्मान।
आज तो चपरासी ही दस हजार से अधिक वेतन पा रहा है लेकिन अभी भी जिन्हें
शिक्षक होना चाहिए था, शिक्षा कर्मी बनाकर चपरासी से कम वेतन दिया जा रहा
है। बस्तर के कोया कमांडों का ही वेतन 3 हजार रूपये है। जो असल में
उपयोगी है और जान की बाजी लगाए हुए हैं। जरूरत उनको सम्मानजनक वेतन देने
की है।

लेकिन उनकी किसे चिंता है। चिंता तो उन्हें अपनी है। अपने सम्मान के नाम
पर अस्सी हजार रूपये से अधिक वेतन चाहिए। सुरक्षा के लिए कमांडो चाहिए।
अवकाश प्राप्त करने अर्थात जनता के द्वारा नकार दिए जाने के बावजूद पेंशन
चाहिए। केंद्र सरकार प्रतिमाह बीस हजार रूपये पेंशन देने के लिए भी अपने
भूतपूर्व सांसदों को तैयार है। वेतन वृद्घि भी पुरानी तारीख से देने के
लिए तैयार हैं। यह सोच का विषय किसी के लिए नहीं है कि जो चुनाव में एक
बार चुने जाने के बाद हार जाता है तो उसे पेंशन क्यों दिया जाए? जब जनता
उसे दोबारा स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं तो जीवन भर पेंशन का आनंद उसे
क्यों  उठाने दिया जा रहा है ? लेकिन इस सोच की जरूरत किसी को महसूस नहीं
होती। क्योंकि सबको पता है कि बिरलों को ही जनता न नकारे तो न नकारे
लेकिन अधिकांश को जनता कभी न कभी नकार देती है। सबको अपनी चिंता है। जनता
से क्या लेना देना ?

- विष्णु सिन्हा
22-08-2010