दिखायी देता हो लेकिन भारतीय नागरिकों को भी अपमान समझ में नहीं आता है,
ऐसी सोच लेकर पाकिस्तान अपमान करने में पीछे नहीं है। पाकिस्तान के
हुक्मरानों का कहना है कि यूएनओ के द्वारा भारत मदद करेगा तो वह उसे
स्वीकार करेगा। जबकि भारत की भावना स्पष्टï है। पाकिस्तान की 1 करोड़ से
अधिक आबादी बाढ़ की चपेट में है और आशियाना विहीन हो किसी को नहीं रखना
चाहिए। वर्षा और बाढ़ से पीडि़त पाकिस्तान की जनता को मदद पहुंचाने की
भारत की कोशिश को भी सीधे सीधे न की गयी है। भारत ने पाकिस्तान को सिर्फ
पड़ोसी ही नहीं माना बल्कि भाई ही माना। भाई को तकलीफ में देखकर भारत ने
मदद के लिए हाथ बढ़ाया तो उसे भी झटक दिया गया। इससे उसकी नीयत की चुगली
होती है। अपने निर्माण से लेकर आज तक पाकिस्तान ने भारत को दुश्मन की ही
नजर से देखा है। इसके लिए उदाहरणों की कमी नहीं है। फिर भी हर बार भारत
ने दोस्ती का ही हाथ बढ़ाया। हासिल क्या हुआ, यह भी सबको अच्छी तरह से
पता है।
यही हाल चीन का है। स्वतंत्र होने के बाद भारत ने हिन्दी चीनी भाई भाई का
ही नारा लगाया। भारत की भलमनसाहत का परिणाम यह निकला कि चीन ने भारत पर
हमला कर हजारों वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर कब्जा कर लिया। अभी भी अरूणाचल
जैसे कई क्षेत्रों पर अपने होने का दावा वह करता ही रहता है। तिब्बत को
वह निगल ही चुका है। दलाई लामा वर्षों से शरणार्थी बनकर भारत में रह रहे
हैं। पाकिस्तान के साथ उसकी पक्की दोस्ती है। फिर हो भी क्यों नहीं? जो
अपने कब्जे वाले भारतीय क्षेत्र को तश्तरी में सजाकर चीन को भेंट करता
हो, वह अच्छा तो लगेगा ही। अब काश्मीर के उस हिस्से पर चीन की नजर है जो
पाकिस्तान के कब्जे में है। पाकिस्तान से वैसे भी वह हिस्सा संभल नहीं
रहा है। न्यूयार्क टाइम्स की खबर है कि चीन के 11 हजार सैनिक उस क्षेत्र
में हैं। चीन बांध बनवा रहा है, सुरंग बनवा रहा है, सैनिकों के स्थायी
निवास की व्यवस्था कर रहा है। सड़कें बना रहा है, हवाई अड्डï बना रहा
है। चीन पाकिस्तान से परमाणु संधि करने वाला है। भारत की उत्तरी सीमा पर
चीन की फौजी गतिविधियां तीव्र हैं।
जम्मू काश्मीर के लोगों को वीजा वह गैर भारतीय मान कर देता है तो जम्मू
काश्मीर के सर्वोच्च फौजी अफसर को चीन आने के लिए वीजा नहीं देता लेकिन
अपने फौजियों को भारत में प्रशिक्षित कराना चाहता है। दरअसल यह भी उसकी
चालाकी है। वह असल में जानना चाहता है कि भारतीय फौज को प्रशिक्षण किस
तरह मिलता है। जिससे वह अपने सैनिकों को लडऩे के लिए तैयार कर सके।
मीडिया के द्वारा सारी जानकारी भारतीयों को मिलती है लेकिन भारत सरकार
अभी भी चीन और पाकिस्तान से सदभावना की उम्मीद करती है। माओवादियों ने
काठमांडू से तिरूपति तक लालगलीचा बिछा रखा है। बिना हिचक प्रधानमंत्री और
उनके मंत्री माओवादियों को अपना बताते हैं। बार बार के अनुभव से कभी तो
आदमी सीखता है लेकिन हमने शायद कसम खा रखी है कि हम नहीं सीखेंगे। कुछ
दिन पहले देश के लिए जिन्हें खतरा बता रहे थे उन्हें ही अब अपना बताकर
समस्या का हल निकालना चाहते हैं।
आदर्शवाद का अर्थ अव्यवहारिक होना नहीं होता। पाकिस्तान तो अमेरिका तक को
धोखा दे रहा है। पूरी सहायता अमेरिका से आतंकवाद, अफगानिस्तान के नाम पर
वसूल रहा है और यह किसी से भी छुपा हुआ नहीं है कि पाकिस्तान ही सबसे
बड़ा आतंकवाद का पोषक देश है। जिस देश के राष्टपति को अपने देश की
जनता की चिंता नहीं। बाढग़्रस्त लोगों के बीच होने के बदले जो सैर सपाटे
में लगा हो, उससे किसी भी तरह की उम्मीद रखना फिजूल है। अमेरिका तो
अलकायदा और लादेन के चक्कर में ऐसा उलझा है कि सब कुछ जानते समझते हुए भी
वह पाकिस्तान के भरण पोषण का इंतजाम करता है। करोड़ों डालर की मदद के साथ
युद्घ के संसाधन देकर वह आतंकवादियों के संरक्षक को ही बढ़ावा दे रहा है।
पाकिस्तान से तो काश्मीर का वह हिस्सा जो उसके कब्जे में है, 63 वर्षों
में हम वापस प्राप्त नहीं कर सके। इसका मुख्य कारण इच्छाशक्ति की कमी है।
इसके विपरीत आज दशकों से हमारे काश्मीर पर पाकिस्तान आतंकवादियों को भेज
रहा है और करीब 1 लाख लोग मौत का शिकार हो चुके हैं। अब जब पाकिस्तान
अपने कब्जे वाले काश्मीर पर चीन का कब्जा करवा रहा है, तब चीन से काश्मीर
को वापस प्राप्त करना क्या मुमकिन होगा?
तिब्बत के लिए तो हमने मान ही लिया कि वह चीन का है। हमारी हजारों वर्ग
किलोमीटर भूमि हिमालय की वापस प्राप्त करने की हमारी कोई तैयारी नहीं है।
हम तो इसी में राजी हैं कि चीन आगे न बढ़े लेकिन क्या वह मानने वाला है।
पाकिस्तान को काश्मीर पर कब्जा रखना कठिन लग रहा है, महंगा लग रहा है।
इसलिए वह चीन को सौंप रहा है। काश्मीरी भारत के पक्ष में हो जाएं, इससे
बेहतर तो उसके लिए यही है कि चीन उस पर कब्जा कर ले। देर सबेर भारतीय
काश्मीर पर भी अपना दावा करने के लिए चीन स्वतंत्र हो जाएगा। तिब्बत में
अभी भी तिब्बत की स्वतंत्रता का आंदोलन चलता है लेकिन वहां चीनियों को
बसाकर और आंदोलन को कू्ररता से दबाकर चीन शासन कर रहा है। चीन भारत के
साथ ऐसा कर रहा है, ऐसा नहीं है बल्कि वह अपने हर पड़ोसी के साथ यही कर
रहा है। बंगलादेश, श्रीलंका, नेपाल, पाकिस्तान हर जगह तो उसकी घुसपैठ है।
यहीं क्यों भारत में भी उसकी घुसपैठ है। पिछले दिनों छत्तीसगढ़ के कोरबा
में जो हादसा हुआ उसके लिए भी तो चीनी ही जिम्मेदार थे। उन्हीं के पास
निर्माण का ठेका था।
आज चीन अमेरिका के बाद दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक ताकत है। भारतीय बाजार
पर कब्जे की उसकी इच्छा भी सर्वविदित है। दुनिया की सबसे बड़ी आबादी और
सबसे बड़ी फौज भी उसके पास है। उसने तो अभी मिसाइलें भी भारत की तरफ तान
रखी है। तब कहीं भारत सरकार ने सीमा पर मिसाइल तैनात करने की आवश्यकता
महसूस की। आज की युद्घ प्रणाली में जो पहला हमला करेगा, वह दूसरे को साफ
करने की ताकत भी रखता है। आक्रामक फितरत न होने के कारण भारत घाटे में न
रहे। अभी भले ही कहा जा रहा है कि खाड़ी तक जल्दी पहुंचने की नीयत से चीन
यह कर रहा है लेकिन दूरदृष्टि से देखा जाए तो एक पंथ कई काज चीन के हो
रहे हैं। अमेरिका के अपने निहित स्वार्थ हैं और उसके भरोसे तो सब कुछ की
उम्मीद नहीं की जा सकती।
भारत के हुक्मरान सारी परिस्थितियों से अच्छी तरह से परिचित हैं। युद्घ
से बचने की कोशिश अच्छी रणनीति नहीं है। देशों की आपसी दोस्ती दुश्मनी
ताकत और स्वार्थ पर निर्भर करती है। मात्र भलमानसाहत पर नहीं। कभी रूस से
दोस्ती निश्चित रूप से भारत के लिए फायदेमंद थी जब दो ध्रुवीय विश्व में
रूस एक धु्रव था लेकिन अब वह बात रही नहीं। चीन उसका स्थान लेने के लिए
अपना पूरा प्रयास कर रहा है। भारत भी दुनिया की नजरों में उभरती ताकत है।
यदि भारत को विभिन्न समस्याओं में उलझाकर न रखा गया तो भारत सबको पीछे
छोड़ सकता है। यह भी सभी अच्छी तरह से जानते हैं। इसलिए आंतरिक ही नहीं
बाहरी अवरोधों से भी निपटने के लिए चौतरफा तैयारी की जरूरत है। विश्वास
किसी अन्य पर नहीं स्वयं पर करने की जरूरत है।
-विष्णु सिन्हा
29-08-2010