कांग्रेस में अल्पसंख्यक नेताओं की तो कोई कमी नहीं है। मनोनीत ही नहीं
निर्वाचित नेता हैं। मोहम्मद अकबर, बदरूद्दीन कुरैशी, गुरूमुखसिंह होरा,कुलदीप जुनेजा जैसे नेताओं को तो जनता ने ही चुनकर विधानसभा में भेजा।
अजीत जोगी और रेणु जोगी का नाम और जोड़ लिया जाए तो अल्पसंख्यक वर्ग के
विधायकों की बड़ी संख्या विधानसभा में कांग्रेस की है। अजीत जोगी ईसाई
हैं। इसलिए वे भी अल्पसंख्यक ही कहे जाएंगे। भले ही वे अपने आपको
अल्पसंख्यक के बदले बहुसंख्यक आदिवासी नेता कहलाना पसंद करें।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह स्वयं अल्पसंख्यक हैं और उनका यह कथन तो
सर्वविदित है कि देश के संसाधनों पर पहला हक अल्पसंख्यकों का होना चाहिए।
बहुसंख्यकों की नाराजगी की परवाह न करते हुए जब प्रधानमंत्री तक ऐसे
विचार रखते हैं तब रायपुर का कोई अल्पसंख्यक नेता अपनी नाराजगी इस आधार
पर प्रगट करे कि उसकी उपेक्षा हुई कितना उचित है।
इकबाल अहमद रिजवी को कहीं से भी प्रदेश कांग्रेस कमेटी का सदस्य बना दिया
जाता तो उनकी कोई नाराजगी नहीं होती। राजीव गांधी के जन्मदिन पर जो
नाराजगी उन्होंने पार्टी कार्यक्रम के दौरान व्यक्त की उसे वे जायज मानते
हैं। क्योंकि उन्होंने अपनी बात पार्टी फोरम में रखी। अपने दिवंगत नेता
के जन्मदिन के कार्यक्रम को वे इस तरह की बात कहने के लिए उचित समझते हैं
तो इसे उचित कैसे कहा जा सकता है? इसकी आलोचना पार्टी के ही नेता एवं
कार्यकर्ता करते हैं तो इकबाल अहमद इसे अनुशासनहीनता बताते हैं। जबकि
स्वयं को प्रदेश कांग्रेस में सदस्य मनोनीत न होने पर उन्होंने प्रेस से
कहा था कि उन्हें सदमा लगा है। वे पार्टी के प्रवक्ता भी हैं। उनका ऐसा
प्रेस से कहना क्या अनुशासनहीनता नहीं है, उनकी नजर में। 10-11 वर्ष तक
वे शहर कांग्रेस के अध्यक्ष रहे। आज प्रदेश प्रवक्ता हैं तो उन्हें स्वयं
सोच विचार कर अपनी बात कहना चाहिए । पार्टी फोरम के नाम पर राजीव गांधी
के जन्मदिन पर उनका कहा तो अक्षरश: समाचार पत्रों में छपा और सबको मालूम
पड़ गया कि इकबाल अहमद रिजवी नाराज हैं। क्योंकि उन्हें प्रदेश प्रतिनिधि
नहीं बनाया गया।
जब पार्टी में नए लोगों को जगह देना हो तो पुरानों को तो हटना ही
पड़ेगा। कोई जगह ही खाली नहीं करेगा तो पार्टी में नए कार्यकर्ताओं को
आगे बढऩे का मार्ग कैसे मिलेगा? फिर यह पहली बार इकबाल अहमद रिजवी के साथ
ही हो रहा है, क्या ? कांग्रेस में वे पहले और इकलौते शख्स हैं क्या
जिन्हें प्रदेश प्रतिनिधि बनने का अवसर नहीं मिला। वास्तव में कोई पार्टी
के लिए निष्ठïपूर्वक ईमानदारी से काम करना चाहता है तो किसी भी तरह के
पद की जरूरत क्या है? अपने नेता सोनिया गांधी और राहुल गांधी की ही तरफ
देखें। सोनिया गांधी को तश्तरी में सजाकर प्रधानमंत्री का पद दिया गया था
लेकिन उन्होंने इंकार कर दिया। मनमोहन सिंह राहुल गांधी को अपने
मंत्रिमंडल में शामिल करना चाहते थे लेकिन राहुल गांधी ने सरकार में
सम्मिलित होने के बदले पार्टी के लिए जनसमर्थन जुटाने के कार्य को
स्वीकार किया। कांग्रेस में ऐसे कितने लोग हैं जो मंत्री बनने का अवसर
मिले तो मंत्री बनने के बदले पार्टी का काम करना ज्यादा पसंद करें।
आज कांग्रेस में सोनिया गांधी और राहुल गांधी ऐसे व्यक्ति हैं जो बिना
किसी पद के भी जनता में सर्वाधिक लोकप्रिय और स्वीकार्य है। कोई कहे कि
मैंने इतने वर्ष कांग्रेस की सेवा की, इसलिए मैं पद का अधिकारी हूं तो
इससे यही सिद्घ होता है कि सेवा का कारण पद है। फिर जनता स्वयं अच्छी तरह
से जानती है कि किसने उसकी सेवा की।
इकबाल अहमद रिजवी वर्षों रायपुर शहर के कांग्रेस अध्यक्ष रहे लेकिन न तो
रायपुर विधानसभा की सीट पर कांग्रेस को जितवा सके और न ही रायपुर को
कांग्रेस का गढ़ बना सके। जबकि पहले रायपुर कांग्रेस का ही गढ़ था। एक
समय तो ऐसा भी था जब रायपुर शहर रायपुर ग्रामीण रायपुर लोकसभा, नगर निगम
सब पर भाजपा का ही कब्जा था। बहुत वर्षों के बाद 4 विधानसभा सीट होने पर
एक सीट से कांग्रेस विधायक का चुनाव जीत सकी। कुलदीप जुनेजा के कारण और
नगर निगम पर किरणमयी नायक ने महापौर के रूप में कब्जा किया। उपलब्धि यदि
माना जाए तो यह उपलब्धि शहर कांग्रेस अध्यक्ष इंदरचंद धाड़ीवाल की मानी
जाएगी। रायपुर के विधायक बृजमोहन अग्रवाल वर्षों से विधायक चुने जाते रहे
हैं। उन्हें आज तक तो कांग्रेस हरा नहीं सकी। जबकि उन्हें हराने के लिए
तत्कालीन मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने तो रायपुर में नुक्कड़ सभाएं तक की
थी।
जिनके शासन और संगठन पर रहते हुए प्रदेश से कांग्रेस की सत्ता लुप्त हो
गयी, उन्हें तो स्वयं पद स्वीकार करने से इंकार कर देना चाहिए लेकिन जो
लोग पार्टी से स्वयं को बड़ा समझते हैं, वे ऐसा नहीं कर सकते। वे तो अपने
लिए तर्क का जुगाड़ करते हैं। हालांकि जब वे पद में रहते हैं तब दूसरों
को भी अपना हक मार दिए जाने की पीड़ा होती है। यह तो वक्त की मांग है। जब
नई पीढ़ी आती है तो वह पुरानी पीढ़ी को धकियाकर आगे बढऩे का रास्ता तलाश
ही लेती है। पुरानी पीढ़ी और नई पीढ़ी के संघर्ष की दास्तां कांग्रेस में
कोई नई नहीं है बल्कि इस संघर्ष ने तो पार्टी को कई बार विभाजित भी किया
लेकिन अंतत: जनसमर्थन पुरानी पीढ़ी के बदले नई पीढ़ी को ही मिला। स्वयं
इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी इसके ज्वलंत उदाहरण हैं।
इंदिरा गांधी को अपनी जगह बनाने के लिए धाकड़ पुराने कांग्रेसी दिग्गजों
से संघर्ष करना पड़ा। उन्हें दो बार पार्टी से निकाला गया तो उन्होंने
अपनी पार्टी बनायी और जनता ने उन्हें ही समर्थन दिया। राजीव गांधी के
विरूद्घ भी पुराने कांग्रेसियों ने विद्रोह किया और सत्ता भी उनसे छीन
ली लेकिन अंतत. अपनी जान कुर्बान कर कांग्रेस को पुन: सत्ता दिलायी। उस
समय भी सोनिया गांधी प्रधानमंत्री बन सकती थी। सीताराम केसरी ने तो अपनी
गांधी टोपी उनके पैरों पर रख दी कि वे प्रधानमंत्री का पद और कांग्रेस की
अध्यक्षता संभालें लेकिन सोनिया गांधी ने स्वीकार नहीं किया और उनके
इशारे पर नरसिंहराव को सत्ता सौंपी गयी। नरसिंहराव कांग्रेस को सत्ता पर
काबिज नहीं रख सके और अंतत: सीताराम केसरी को उन्होंने अध्यक्षता सौंपी
लेकिन तब कांग्रेस की दुर्दशा सोनिया गांधी से बर्दाश्त नहीं हुई तो
कांग्रेसियों के अनुरोध पर सोनिया गांधी ने अध्यक्षता संभाली। उन्होंने
पूरा अवसर दिया कि उनके बिना कांग्रेसी कांग्रेस को संभालें लेकिन अंतत:
यह हो न सका और सोनिया गांधी के प्रयासों के कारण ही आज कांग्रेस के पास
देश की सत्ता है। उनके विदेशी मूल के होने के कारण कांग्रेसियों ने ही
उनका विरोध भी किया, लेकिन जब जनता ने उन्हें स्वीकार कर लिया तब आज कोई
विदेशी मूल की बात नहीं करता।
अब देश तैयार है, राहुल गांधी को सत्ता सौंपने के लिए तो पुराने
कांग्रेसियों को जगह तो खाली करना ही पड़ेगा। वे सम्मान से खाली करें या
असम्मान से, यह उनकी मर्जी। इतिहास फिर उसी दोराहे पर खड़ा है। जहां नए
लोग आते हैं और पुराने चले जाते हैं।
-विष्णु सिन्हा
24-08-10ृ0