यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

शुक्रवार, 13 अगस्त 2010

अर्जुनसिंह ने तो फिर गांधी परिवार के प्रति अपनी वफादारी दिखा दी लेकिन गांधी परिवार उनकी कद्र करेगा, क्या?

 एंडरसन की जमानत पर रिहाई के मामले में राजीव गांधी को लपेटने की मंशा
सफल नहीं हुई। अर्जुनसिंह ने राज्यसभा में स्पष्ट कर दिया कि राजीव
गांधी ने उन्हें एंडरसन की रिहाई के बाद  के विषय में कोई निर्देश नहीं
दिया था। जो लोग उम्मीद कर रहे थे कि केंद्रीय मंत्रिमंडल में स्थान न
मिलने के कारण अर्जुनसिंह नाराज हैं और वे एंडरसन के मामले में राजीव
गांधी का नाम लेकर पार्टी और सोनिया गांधी के लिए मुसीबत खड़ी करेंगे,
उन्हें अर्जुनसिंह के वक्त्व्य से निराशा ही हाथ लगी। शक की सुई को उन्होंने
गृह मंत्रालय की तरफ कर दिया। जिसके मंत्री वी. पी. नरसिंहराव थे। ये वही
नरसिंहराव थे जिन्हें सोनिया गांधी के निर्देश पर प्रधानमंत्री और
कांग्रेस अध्यक्ष बनाया गया था लेकिन प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष
बनते ही इन्होंने सोनिया गांधी की उपेक्षा प्रारंभ कर दी थी। तब बड़े
बड़े कांग्रेसी वफादार नरसिंहराव के प्रति अपनी वफादारी व्यक्त कर रहे
थे। बोफोर्स के मामले में राजीव गांधी को मृत्यु के बाद भी उलझाने का
प्रयास कर रहे थे। 

तब अर्जुनसिंह ने ही नरसिंहराव के विरूद्घ शंखनाद किया था। नरसिंहराव को
कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की थी। राजीव गांधी के हत्यारों के मामले
में ढिलायी से लेकर बाबरी मस्जिद विध्वंस के मामले में मुसलमानों से माफी
मांगने का मुद्दा उठाया था। मंत्री पद से इस्तीफा दिया था। उस समय बहुत
से कांग्रेसी अर्जुनसिंह के मुद्दों से तो सहमत थे लेकिन सत्ता सुख
छोड़कर नरसिंहराव के विरूद्घ खड़े  होने की हिम्मत नहीं दिखा रहे थे।
अर्जुनसिंह को अनुशासनहीनता की नोटिस  दी गई और उनके द्वारा दिए गए जवाब
को नकार कर अर्जुनसिंह को पार्टी से ही निकाल दिया। बहुत पुराना इतिहास
नहीं है। तब यही मनमोहन सिंह, प्रणव मुखर्जी जैसे गांधी परिवार के वफादार
नरसिंहराव के साथ खड़े थे।

नरसिंहराव के नेतृत्व में कांग्रेस ने चुनाव लड़ा और कांग्रेस सत्ताच्युत
हो गयी। राजीव गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति से बनी सरकार को
कांग्रेस के वफादार नरसिंहराव के नेतृत्व में बचा नहीं सके। तब सीताराम
केसरी को पार्टी अध्यक्ष बनाया गया। सोनिया गांधी के जोर देने पर
अर्जुनसिंह और उनके समर्थकों को कांग्रेस में वापस लिया गया। अंतत:
सोनिया गांधी को ही कांग्रेस की कमान अध्यक्ष के रूप में संभालनी पड़ी।
विश्वास अविश्वास के बीच झूलती कांग्रेस को सत्ता तक पहुंचाने के लिए
सोनिया गांधी ने अथक प्रयास किया। सोनिया गांधी के साथ हर कदम पर
अर्जुनसिंह खड़े रहे। वह दिन भी आया जब धर्मनिरपेक्षता के नाम पर
कांग्रेस के विरूद्घ खड़ी राजनैतिक पार्टियों ने सोनिया गांधी के साथ
गठबंधन किया और गठबंधन की नेता सोनिया गांधी को माना। कांग्रेस संसदीय दल
की नेता सोनिया गांधी चुनी गयी और उन्हें ही प्रधानमंत्री बनने के लिए
कांग्रेस सहित गठबंधन के दलों ने कहा लेकिन जब सब तरफ यह संदेश प्रसारित
हो रहा था कि सोनिया गांधी प्रधानमंत्री होंगी तब बड़े ही नाटकीय ढंग से
सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री पद स्वीकार करने से इंकार कर दिया। सभी
समर्थकों ने उन्हें मनाने की कोशिश की लेकिन वे नहीं मानी।

स्वाभाविक था कि ऐसे में किसी ऐसे व्यक्ति का वे चयन करती जो उनके प्रति
पूरी तरह से वफादार होता। अर्जुनसिंह का पहला नाम था जिसका चुनाव
प्रधानमंत्री के लिए सोनिया गांधी को करना चाहिए था। अर्जुनसिंह का चयन
करने के बदले सोनिया गांधी ने चयन मनमोहन सिंह का किया। जो वफादारी के
नाम पर नरसिंहराव के वफादार थे और उन्हीं के कारण कांग्रेस की राजनीति
में सीधे वित्त मंत्री बनकर आए थे। अर्जुनसिंह की जगह कोई भी व्यक्ति
होता तो उसे झटका अवश्य लगता लेकिन अर्जुनसिंह ने किसी भी तरह की नाराजगी
व्यक्त नहीं की। उन्हें मंत्रिपरिषद में लिया गया और मानव संसाधन मंत्री
बनाया गया। मनमोहन सिंह के मंत्रिमंडल में वे 5 वर्ष तक मंत्री रहे लेकिन
फिर जब चुनाव जीत कर कांग्रेस सत्ता में आयी तो अर्जुनसिंह को मंत्रिमंडल
में नहीं लिया गया। कारण बताया गया कि अर्जुनसिंह को मनमोहन सिंह पसंद
नहीं करते। मतलब सोनिया गांधी की पसंद का कोई अर्थ नहीं।

यह वही अर्जुनसिंह हैं जिनके नेतृत्व में मध्यप्रदेश में भोपाल गैस
त्रासदी के बावजूद कांग्रेस ने लोकसभा की 40 में से 40 सीटें जीती थी। यह
इतिहास है और ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। विधानसभा की भी 320 सीटों में  से
कांग्रेस ने 240 सीटें जीती थी। अर्जुनसिंह पुन: मुख्यमंत्री बने और बनते
ही राजीव गांधी के निर्देश पर मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया।
उन्हें राजीव गांधी ने पंजाब का राज्यपाल बना दिया। उस पंजाब का जहां
आतंकवाद ने लोगों का जीवन नर्क बना दिया था। वहाँ  किसी के भी सफल होने की
कोई संभावना नहीं थी लेकिन विपरीत परिस्थितियों में भी अर्जुनसिंह ने
पंजाब में चमत्कार किया और एतिहासिक राजीव लोंगोवाल समझौता कराया। चुनाव
कराए और शांति के लौटने के लिए राह प्रशस्त किया। उसके बाद उन्हें केंद्र
सरकार में मंत्री बनाया गया। दक्षिण दिल्ली से चुनाव लड़ाया गया। जहां से
अर्जुनसिंह चुनाव जीतकर आए और यही वह सीट है जहां से मनमोहन सिंह चुनाव
जीत नहीं सके थे। अर्जुनसिंह को पार्टी का उपाध्यक्ष बनाया गया। पूरी
वफादारी से गांधी परिवार और कांग्रेस की सेवा करने का अर्जुनसिंह का
रिकार्ड रहा।

अल्पसंख्यकों के विश्वास को कांग्रेस के प्रति कायम रखने में अर्जुनसिंह
की भूमिका अहम रही। इसके कारण तो भाजपाई उन्हें मौलाना अर्जुनसिंह तक
कहते थे। आज उम्र की जिस दहलीज पर वे खड़े हैं तब उन्हें जिस तरह की
तवज्जो कांग्रेस को देना चाहिए, वह नहीं दे रही है। उनके हमउम्र
मंत्रिमंडल में बने हुए हैं और उनसे कहा जा रहा है कि वे किसी राज्य का
राज्यपाल बन जाएं। इसके बावजूद कल राज्यसभा में अपने वक्तव्य से
अर्जुनसिंह ने पुन: सिद्घ किया कि वे गांधी परिवार के वफादार हैं। वे
चाहते तो कह सकते थे कि राजीव गांधी के कहने पर एंडरसन को छोड़ा गया।
उनका इतना कहना कांग्रेस के लिए कितना नुकसानदायी साबित होता, इसकी
कल्पना की जा सकती है। कितने लोग हैं जिन्होंने राजीव गांधी के प्रति ऐसी
वफादारी दिखायी। स्वयं प्रणव मुखर्जी राजीव गांधी की खिलाफत कर पार्टी
छोड़कर अपनी पार्टी एक जमाने में बना चुके हैं। मनमोहन सिंह तो जीवन भर
नौकरशाह रहे और सीधे वित्त मंत्री के रूप में कांग्रेस में आए। सभी 
वफादारों को पीछे छोड़ते हुए वे प्रधानमंत्री की कुर्सी पर काबिज हैं।
सरकार के पिछले कार्यकाल में जो लोकप्रियता मिली, वह आज तो नहीं है। देश
महंगाई, आतंकवाद, अलगाववाद जैसी समस्याओं से दो चार हो रहा है। भ्रष्ट
मंत्रियों के साथ जो व्यवहार होना चाहिए वह करने में मनमोहन सिंह सफल
नहीं हो रहे हैं। तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी आशा की किरण
अर्जुनसिंह जैसे कांग्रेसी ही हैं लेकिन उन्हें उचित सम्मान क्या सोनिया
गांधी दे सकेंगी?

-विष्णु सिन्हा
12-8-2010