जारी कर दी है। यह तो स्वाभाविक है कि जिनका नाम सूची में नहीं हैं,
उन्हें सदमा लगे। ये लोग भूल जाते हैं कि जब इन सूचियों में इनका नाम रखा
गया था तब भी बहुतों का नाम सूची से बाहर हो गया था। क्योंकि एक बार जो
सूची में आ गया, वह सोचे कि हमेशा उसी का नाम सूची में रहे तो आज जिनका
नाम सूची में है, उनमें से भी बहुतों का नाम नहीं होता। आजीवन के लिए तो
कोई सूची होती नहीं। यदि होती तो फिर किसी के स्वर्गवासी होने से ही सीट
खाली होती और तब किसी को सूची में प्रवेश मिलता। यह तो सदा से होता आया
है कांग्रेस में कि जिसकी चलती है, उसके समर्थक बहुतायत से सूची में ही
नहीं, पदाधिकारी भी बन जाते हैं। स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस के
पदाधिकारी बदलते ही रहे हैं। कौन यह चिंता करता है कि किसे सदमा लग रहा
है?
जहां तक रिश्तेदारों के चयन का मामला है तो यह कांग्रेस की परंपरा का अंग
है। सबसे बड़ा पद ही जब वंश परंपरा से चल रहा है तो नीचे के पदों में भी
नियुक्ति वंश परंपरा से हो तो इसमें विरोध का कोई कारण नहीं होना चाहिए।
आखिर वंश परंपरा का तो यही अर्थ होता है कि जिसके पूर्वज निष्ठापूर्वक
कांग्रेस की सेवा करते आए, उसके वारिस पर विश्वास किया जाए। यत्र तत्र
सर्वत्र जिधर भी दृष्टि डाली जाए, यही तो दिखायी पड़ता है। किसी के
पिताश्री की चलेगी तो वह अपने पुत्र पुत्री को ही अवसर देगा। इस व्यवस्था
से नाराज होने का तो कोई कारण नहीं होना चाहिए। जो लोग नेताओं की सेवा कर
पार्टी में पद चाहते हैं, उन्हें इसका आभास रहता ही है कि उनके नेता की
चली तो उनके अवसर हैं। नहीं चली या कम चली तो अवसर पहले अपने परिवार के
लोगों को देंगे, न कि दूसरे कार्यकर्ताओं को।
आज मोतीलाल वोरा की चल रही है, चरणदास महंत की चल रही है तो उनके
कार्यकर्ता प्रदेश प्रतिनिधि बन रहे हैं। एक तरह से संगठन पर इन्हीं का
वर्चस्व दिखायी दे रहा है। किसी भी नेता या कार्यकर्ता से पार्टी को इनकी
जरुरत ज्यादा है। आलाकमान भी प्रदेश की बागडोर इन्हें सौंपकर निश्चिंत
होना चाहता है। फिर कांग्रेस के कार्यकर्ता हो तो क्या पद के लिए
कांग्रेसी हो? पद नहीं मिला तो क्या पार्टी छोड़ देंगे? यदि ऐसी मंशा हो
तो पार्टी परवाह कहां करती हैं। ऐसी ही गुटों में बंटी पार्टी छत्तीसगढ़
के मतदाताओं को संतुष्ट कहां कर पा रही है। पार्टी के लिए काम करना है
तो बिना पद के भी काम किया जा सकता है। परेशानी क्या है? बहुत से
कांग्रेसी नेता ऐसे हैं जिन्हें पार्टी की जरुरत है लेकिन पार्टी को भी
उनकी जरुरत है, ऐसा कहां हैं?
बड़े-बड़े नेता जो पार्टी से अपने को बड़ा समझते थे, पार्टी से बाहर जाकर
भी देख चुके। पार्टी ने उनकी वापसी के लिए कोई पलक पावड़े नहीं बिछाए थे
और न ही इन्हें आमंत्रित कर रही थी कि लौट आओ। बार-बार की मिन्नत मसाजत
के बाद पार्टी ने उन्हें लिया। उम्मीद की जा रही थी कि शायद उनके आगमन से
पार्टी को लाभ होगा और सत्ता पार्टी के हाथ में फिर से आ जाएगी लेकिन हुआ
तो नहीं ऐसा। अरविंद नेताम की वापसी के बावजूद बस्तर में पार्टी साफ हो
गयी। कितने ही उदाहरण हैं। अब पार्टी प्रदेश प्रतिनिधि बनाना भी उचित
नहीं समझती तो गिला शिकवा कैसा? पार्टी ने तो फिर भी दया दृष्टि की और
पार्टी में प्रवेश दे दिया। बिना शर्त पार्टी में वापसी के बाद कुछ मिले
इसकी आशा ही फिजूल है।
आज छत्तीसगढ़ में पार्टी की जो हालत है, उसके लिए दोषी कौन है? पार्टी तो
फिर भी इज्जत कर रही है। अपने घर का सदस्य मान रही है। यह बात तो आइने की
तरह साफ है कि नए खून को पार्टी में उचित स्थान नहीं दिया गया तो
छत्तीसगढ़ में पार्टी को नवजीवन प्राप्त करना कठिन काम है। पार्टी को ऐसे
नेता की जरुरत है जो पार्टी का कायाकल्प कर सके। लोगों में विश्वास पैदा
कर सके कि अब पार्टी पुराने रास्ते पर नहीं चलेगी। पार्टी दंभी लोगों को
नेता नहीं बनाएगी बल्कि विनम्र, पार्टी के प्रति एकनिष्ठ, जनता के प्रति
आस्थावान व्यक्ति को नेता के रुप में आगे बढ़ाएगी। खासकर उसे जो राजनीति
को धंधा नहीं समझता। राजनीति तो जनसेवा का माध्यम है और जनता की सेवा के
लिए हर पल तत्पर रह सकता है, उसे ही पार्टी को नेता के रुप में प्रस्तुत
करना चाहिए।
उसमें यह विशेषता हो कि वह किसी गुट का न हो और न ही किसी तरह की गुटबाजी
में विश्वास करता हो। उसके लिए सभी ईमानदार, कर्मठ, पार्टी के प्रति पूरी
तरह निष्ठïवान कार्यकर्ता न केवल उपयोगी हों बल्कि उनकी सेवा को पार्टी
में पूरा सम्मान मिले । वे मुखौटे वाले नेता न हों। कांग्रेस महासचिव
दिग्विजय सिंह के शब्दों का उपयोग करें तो वे फूल छाप कांग्रेसी न हों।
मोहम्मद अकबर ऐसे ही नेता हैं। आलाकमान उन्हें पार्टी का नेतृत्व सौंपता
है तो पूरी तरह से उम्मीद कर सकता है कि वे पार्टी के चुनावों में
सम्मानजनक स्थान दिलाएं। विपरीत परिस्थितियों में भी जीत का उनका इतिहास
है। जातिगत राजनीति से परे वे सर्वस्वीकार नेता हैं। पहले वीरेन्द्र नगर,
फिर पंडरिया से उनकी जीत अपनी कहानी खुद कहती हैं। भाजपा में जिस तरह से
किसी भी चुनाव में जीत की उम्मीद बृजमोहन अग्रवाल से की जाती है,
कांग्रेस में उसी तरह की जीत की उम्मीद मोहम्मद अकबर से की जाती है। एक
जमाने में दिग्गज नेता से कृषि उपज मंडी का अध्यक्ष पद उन्होंने छीन लिया
था। वे छात्र राजनीति से कांग्रेस की राजनीति में आए हैं और उनकी
राजनैतिक समझ की परिपक्वता बेमिसाल है।
पुराने दिग्गज तो अपने सामने किसी को कुछ समझते नहीं और पूरी राजनीतिक
गतिविधियां स्वयं को केंद्र में रख कर संचालित करते हैं । अब ये पुराने
जमाने के हीरो की तरह हो गए। जो भले ही कल सुपर स्टार रहे हों लेकिन आज
चरित्र अभिनेता जैसा काम पाकर भी प्रसन्न हो जाते हैं। राहुल गांधी के
साथ कांग्रेस के प्रति जो झुकाव उत्तरप्रदेश में कांग्रेस के प्रति लोगों
का बढ़ा है तो वैसा ही चेहरा राजनीति में छत्तीसगढ़ में भी चाहिए। जीत की
भावना से लबरेज नेता के हाथ में कमान सौंप कर सोनिया गांधी पुन:
छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की वापसी की उम्मीद कर सकती हैं। मोहम्मद अकबर
ऐसे ही नेता हैं। विषम परिस्थिति में पंडरिया जैसे नए विधानसभा क्षेत्र
से भी जीत का परचम लहराकर मोहम्मद अकबर ने स्वयं को साबित किया है। वे
ऐसे नेता हैं जिनके लिए आलाकमान का आदेश ही सब कुछ है। विधायक के रुप में
विधानसभा में वे सरकार को हमेशा कठघरे में खड़ा करने का प्रयत्न करते
दिखायी देते हैं। आलाकमान ही सोचे कि वह किसी के हाथ की कठपुतली बनकर
प्रदेश को भाजपा के हाथ में ही देखना चाहती है या फिर वास्तव में पार्टी
को सत्ता में लौटता देखना चाहती है। अवसर अभी है और पूरा अवसर है।
सदुपयोग कर सकते हैं तो कर लें।
-विष्णु सिन्हा
दिनांक : 01.08.2010
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सही बात.
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