लेकिन क्या यह संभव है कि असंतुष्ट असंतुष्ट भाई भाई हो जाएं? जिस अजीत
जोगी की सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए विद्याचरण ने कांग्रेस तक छोड़ दी
थी और छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी सरकार के विरूद्घ शंखनाद किया था। उस अजीत
जोगी के साथ मिलकर संगठन में अपने समर्थकों को एडजस्ट कराने के लिए
विद्याचरण तैयार होंगे, क्या? इन्हीं अजीत जोगी की सरकार को सत्ता से
च्युत करने के लिए विद्याचरण शुक्ल ने कांग्रेस छोड़ी, राष्टवादी
कांग्रेस में सम्मिलित हुए और उनके साथ कितने ही कांग्रेसियों ने भी
कांग्रेस छोड़ी थी। स्व. राम अवतार जग्गी भी उन्हीं में से एक थे। जिनकी
चुनाव के पहले हत्या कर दी गई थी। छत्तीसगढ़ की जनता के लिए यह इतिहास
कोई बहुत पुराना नहीं है। विद्याचरण शुक्ल ने तो भाजपा की टिकट पर अजीत
जोगी के विरूद्घ महासमुंद का चुनाव भी लड़ा था। इसी चुनाव के दौरान एक
दुर्घटना में अजीत जोगी के रीढ़ की हड्दी पर चोट लगी और विद्याचरण चुनाव
हार गए।
चुनाव हारने के बाद विद्याचरण ने भाजपा से इस्तीफा दिया और अब फिर
कांग्रेस में हैं। विद्याचरण का कांग्रेस प्रवेश न हो इसलिए अजीत जोगी ने
कम प्रयास नहीं किया लेकिन विद्याचरण की अंतत: काग्रेस में वापसी हो
गयी। यह बात दूसरी है कि अभी तक पार्टी ने चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष
बनाने के सिवाय और कोई जिम्मेदारी नहीं सौंपी। न तो लोकसभा का उम्मीदवार
बनाया और न ही राज्यसभा की टिकट दी। अजीत जोगी अवश्य विधानसभा की टिकट
पत्नी सहित प्राप्त करने में न केवल सफल रहे बल्कि वे दोनों विधायक भी
चुने गए। यहां तक कि लोकसभा चुनाव में अजीत जोगी की पत्नी रेणु जोगी को
कांग्रेस ने बिलासपुर से प्रत्याशी भी बनाया लेकिन दिलीप सिंह जूदेव को
हराने में वे सफल नहीं हुई। यहां तक कि कांग्रेस ने 11 में से 1 लोकसभा
सीट जीती तो जितने वाले चरणदास महंत हैं।
चरणदास महंत को कांग्रेस ने छत्तीसगढ़ प्रदेश का पार्टी अध्यक्ष बनाया
था। वे पार्टी को ठीकठाक ही चला रहे थे कि उन्हें हटाकर धनेन्द्र साहू
को पार्टी अध्यक्ष बना दिया गया। चरणदास महंत को पदावनत कर कार्यकारी
अध्यक्ष बना दिया गया लेकिन पार्टी फिर भी सत्ता में नहीं आ सकी।
अंबिकापुर के विधायक टीएस सिंहदेव कहते हैं कि चरणदास महंत पार्टी
अध्यक्ष होते तो पार्टी सत्ता में होती। अब स्थिति यह है कि पार्टी
आलाकमान की नजरों में सफलता के कारण चरणदास महंत की स्थिति मोतीलाल वोरा
के बाद सबसे अच्छी है। चर्चा भी है कि प्रदेश कांग्रेस के चुनाव में
मोतीलाल वोरा और चरणदास महंत के ही समर्थक सबसे ज्यादा स्थान पाने में
सफल हुए हैं। विद्याचरण शुक्ल की नहीं चली, यह तो समझ में आने वाली बात
है लेकिन अजीत जोगी की नहीं चली तो इससे यही समझ में आता है कि अब वैसी
पकड़ उनकी कांग्रेस में नहीं रह गयी।
विद्याचरण कह रहे हैं कि अजीत जोगी का फोन उनके पास आया था। इसका मतलब
होता है कि अजीत जोगी को अब अपनी बात आलाकमान तक पहुंचाने और मनवाने के
लिए विद्याचरण के सहारे की जरूरत है। कहते हैं कि राजनीति में न तो
स्थायी दोस्ती होती है और न ही स्थायी दुश्मनी। समय और लाभ की दृष्टि से
दोस्ती दुश्मनी होती है लेकिन फिर भी छत्तीसगढ़ के कांग्रेसी ही नहीं
जनता भी उत्सुकता के साथ देख रही है कि विद्याचरण और अजीत जोगी मिलकर काम
करते हैं या नहीं। विद्याचरण का आज भी कांग्रेस और जनता में सम्मान है
लेकिन अजीत जोगी के साथ खड़े होने से सम्मान रह पाएगा, क्या? कांग्रेस
आलाकमान और छत्तीसगढ़ के कांग्रेसी जानते हैं कि कभी कांग्रेस का गढ़ रहा
छत्तीसगढ़ आज कांग्रेस के हाथ से निकल गया तो उसका कारण अजीत जोगी ही
हैं। उनकी सरकार से जनता की नाराजगी के कारण आदिवासी मुख्यमंत्री होते
हुए भी आदिवासियों ने कांग्रेस का साथ छोड़ा और एक गैर आदिवासी का
नेतृत्व स्वीकार किया।
ये वही अजीत जोगी हैं जो मुख्यमंत्री रहते कहा करते थे कि कार्यकर्ता
कांग्रेस के प्रति निष्ठïवान हैं लेकिन गुटबाजी नेता करते हैं। अब जो भी
प्रदेश प्रतिनिधि बने हैं, वे भी तो कांग्रेसी हैं। फिर मेरे तेरे समर्थक
का क्या अर्थ है? कौन कह रहा है कि मेरे समर्थकों को पर्याप्त स्थान नहीं
मिला। जो ऐसा कहे उसके समर्थक को तो वैसे भी स्थान नहीं मिलना चाहिए।
वफादारी पार्टी के प्रति होना चाहिए या किसी छुटभैये नेता के प्रति। न इस
नेता न उस नेता जो पार्टी के प्रति वफादार है, उन्हें अहमियत मिलना
चाहिए। पार्टी का साधारण ईमानदार कार्यकर्ता भी अच्छी तरह से जानता है कि
पार्टी की अलोकप्रियता का कारण कौन कौन से नेता हैं? इनके वर्चस्व के लिए
लड़ते रहने से ही पार्टी की दुर्दशा हुई है।
छत्तीसगढ़ जैसे प्रदेश को ऐसे नेता के हाथ में नेतृत्व सौंपने की जरूरत
है जो गुटविहीन हो ओर फिर भी सफल हो। जो जात पात की राजनीति से परे हो।
युवा हो और राहुल गांधी के साथ कदमताल करने की क्षमता रखता हो। यह बात तो
एकदम स्पष्ट है कि पार्टी का भविष्य राहुल गांधी हैं और पार्टी को ऐसे
लोगों को नेतृत्व करने का अवसर देना चाहिए जो कांग्रेस और राहुल गांधी के
हाथ मजबूत कर सके। जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कहते हैं कि देश के
संसाधनों पर पहला अधिकार अल्पसंख्यकों का होना चाहिए तो योग्य अल्पसंख्यक
नेताओं को भी तो नेतृत्व सौंपना चाहिए। डर का तो कोई प्रश्र नहीं है। सभी
तरह के प्रयोग करके तो पार्टी देख चुकी। आदिवासी, पिछड़ा, सवर्ण सबको
पार्टी आजमा चुकी। किसी को पार्टी अध्यक्ष तो किसी को मुख्यमंत्री तो
किसी को प्रतिपक्ष का नेता। इतिहास तो यही कहता है कि सभी असफल ही
सिद्घ हुए। खोने के लिए पार्टी के पास है, ही क्या? ताश के बावन पत्ते
फेंटने के बदले मोहम्मद अकबर जैसे युवा नेता को पार्टी अवसर देती है तो
वे पार्टी को जनमानस में पुन: स्थापित करने की क्षमता रखते हैं। वे किसी
गुट के नहीं हैं और सबको साथ लेकर चल सकते हैं।
लेकिन पार्टी की सोच इतनी दूरदृष्टि को समझ सकेगी, तब ही पार्टी का
उद्घार हो सकता है। यह सही है कि गुटबाज नेता और फूल छाप कांग्रेसियों की
पसंद मोहम्मद अकबर न हो लेकिन ऐसे नेता पार्टी के लिए कितने उपयोगी हैं,
इसका अच्छा खासा अनुभव तो आलाकमान को हो चुका। असंतोष दूर
करने में अपनी ऊर्जा व्यर्थ बरबाद करने के बदले आलाकमान सही निर्णय करे
तो पार्टी को फिर से जनता की नजरों में लोकप्रिय बनाया जा सकता है। जिन
कारतूसों में बारूद ही न हो, उन कारतूसों से कोई उम्मीद करना नासमझी के
सिवाय कुछ नहीं है। सबके चुनाव पूर्व दावों से अलाकमान अच्छी तरह से
परिचित है।
- विष्णु सिन्हा
8-7-2010
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