यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

शनिवार, 14 अगस्त 2010

न तो गर्व करने के लिए मुद्दों की कमी और न ही शर्म करने के लिए

63 वर्ष हो गए, अंग्रेजों की गुलामी से आजाद हुए। इन 63 वर्षों में बहुत
कुछ देश में हुआ। हमारी जनसंख्या ही 3 गुना बढ़ गयी। वह भी समय था जब कम
आबादी के लिए हम पर्याप्त भोजन भी अपने देश में पैदा नहीं कर पाते थे। एक
पूरी पीढ़ी अमेरिका से आयातित लाल गेहूं खाकर बड़ी हुई और आज इतना अनाज
सरकार के पास है कि रखने के लिए पर्याप्त गोदाम नहीं हैं। अनाज सड़ रहा
है। उच्चतम न्यायालय सरकार से कह रहा है कि गरीबों को मुफत में अनाज बांट
दो। सड़ाने से तो अच्छा है कि किसी के उपयोग में आ जाए। कृषि मंत्री शरद
पवार लोकसभा में कह रहे हैं कि मीडिया बढ़ा चढ़ा कर बता रहा है। उनके
कहने का अर्थ यही है कि अनाज सड़ तो रहा है लेकिन उस मात्रा में नहीं जिस
तरह से प्रचारित किया जा रहा है। इससे और कुछ सिद्घ हो न हो एक बात तो
सिद्घ है कि देश में अनाज का भरपूर स्टाक है।

आजादी के बाद 63 वर्ष में हम अनाज के मामले में आत्मनिर्भर हैं,  बढ़ी
हुई आबादी के बावजूद तो यह गर्व करने योग्य उपलब्धि है। सरकार की अमीरी
का यह आलम है कि 12 रूपये किलो में शक्कर दूसरे देशों को बेचती है तो 30
रूपये में देशवासियों के खाने के लिए खरीदती है। देश में 50 प्रतिशत
आबादी अभी भी गरीब है। 20 रूपये प्रतिदिन में गुजारा करती है। भारतवर्ष
की आजादी का श्रेय लेने वाली कांग्रेस केंद्र सरकार पर काबिज है। पिछले
चुनाव में 3 रू. किलो में अनाज 25 किलो प्रति परिवार देने के वायदे पर
मतदाताओं से वोट लिया लेकिन अभी तक जनता सरकार के फैसले का इंतजार कर रही
है।

जब भारत स्वतंत्र हुआ तो स्वाभाविक रूप से सत्ता कांग्रेस के पास रही और
प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने समाजवादी समाज की संरचना का
संकल्प व्यक्त किया। आज कांग्रेस समाजवाद के प्रति प्रतिबद्घ नहीं है
बल्कि उदारीकरण के नाम पर पूंजीवाद की व्यवस्था को कांग्रेस ने अंगीकार
कर लिया है। निश्चित रूप से भारत में अमीरी बढ़ी है। 20 प्रतिशत जनता
अमीर हुई है। भारत जब स्वतंत्र हुआ तो सांसद को 500 रूपये वेतन और
राष्टपति को 10 हजार रूपये वेतन मिलता था लेकिन आज सरकारी चपरासी भी
10 हजार से अधिक वेतन पा रहा है। सांसदों का वेतन भी भत्ते सहित एक लाख
प्रति माह की सीमा लांघने की तैयारी में है। नौकरशाहों के वेतन तो छठवें
वेतनमान की सिफारिश मानकर सरकारों ने इतना बढ़ा दिया है कि बहुत पुरानी
बात नहीं है, जब इतना वेतन मिलना अकल्पनीय था। फिर भी कार्पोरेट जगत के
पदाधिकारियों के सामने यह कुछ भी नहीं है। कितने ही कार्पोरेट पदाधिकारी
करोड़ों में वेतन प्राप्त करते हैं। विकास, उन्नति की दृष्टि से इन्हें
देखें तो आर्थिक समृद्घि आकाश का स्पर्श कर रही है।

लेकिन गरीब मजदूर 100-150 रूपये रोजी पर काम करता है। शासकीय योजना के
तहत उसे सरकार 100 दिन काम देती है तो इसी भारतवर्ष में पिछले दिनों दाल
की कीमत 100 रूपये के आसपास प्रति किलो पहुंच गयी थी। महंगाई का असर यह
है कि 16  रूपये का पेट्रोल जनता 50 रूपये से अधिक में खरीदती है। 16 और
50 रूपये का जो अंतर है, वह सरकारी टैक्स है जो जनता चुकाती है। टैक्सों
का आंकलन करें तो देश में केंद्र, राज्य सरकारों सहित स्थानीय संस्थाओं
के टैक्स का ऐसा भार जनता पर है जो अकल्पनीय है। राजा महाराजा भी जिस शान
शौकत से नहीं रहते थे, वैसी सुविधाएं हुक्मरानों और उनके हाकिमों को
उपलब्ध है। स्वतंत्रता के लिए लडऩे वालों की स्वतंत्र भारत की कल्पना भले
ही यह नहीं रही हो लेकिन यथार्थ से इंकार भी तो किया नहीं जा सकता।
स्वतंत्र भारत में स्वतंत्रता ऐसी है कि काश्मीर स्वायत्तता की मांग करता
है और प्रधानमंत्री उस पर विचार करने को तैयार है। प्रजातंत्र के विरूद्घ
नक्सली सशस्त्र विद्रोह करते हैं तो केंद्र सरकार की ही मंत्री उनके
प्रति सहानुभूति प्रगट करती है। स्वतंत्रता, स्वतंत्रता न रहकर
स्वच्छंदता चाहती है। सरकार अपमान की सीमा पर खड़ी होकर भी उनसे बातचीत
करना जारी रखती है जो अपनी आदतों से बाज नहीं आते। राजनीतिज्ञ किसी
मर्यादा को नहीं मानते और अपने हित में मर्यादा की लक्ष्मण रेखा लांघने
से भी नहीं चूकते। फिर भी हम चाहें तो स्वतंत्रता की 64 वीं वर्षगांठ पर
गर्व कर सकते हैं। गर्व करने के लिए मुद्दों की कमी नहीं है तो शर्मिंदगी
के लिए भी मुद्दे कम नहीं हैं।

- विष्णु सिन्हा
14-8-2010