यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

बुधवार, 18 अगस्त 2010

अक्लमंदी का तकाजा तो यही है कि नक्सली बिना शर्त हिंसा का रास्ता छोड़ दें

नक्सली नेता किशन जी ने युद्घविराम का प्रस्ताव दे दिया है। 3 माह के लिए
वे हिंसा बंद करने के लिए तैयार हैं। राष्टपति और प्रधानमंत्री के 15
अगस्त के अवसर पर किए गए आह्वान का जवाब किशन जी ने दिया है। वैसे तो वे
मध्यस्थता के लिए कई नाम सुझा रहे हैं लेकिन ममता बेनर्जी की मध्यस्थता
में भी बातचीत करने के लिए तैयार हैं। अब यह सोच का विषय प्रधानमंत्री का
है कि वे इसका क्या जवाब देते हैं? इसके पहले गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने
72 घंटे के युद्घविराम पर ही बातचीत का प्रस्ताव दिया था। नक्सली 3 दिन
नहीं 3 माह के लिए हिंसा का रास्ता छोडऩे के लिए तैयार हैं। आजाद की मौत
का मामला भी वार्ता का विषय बन सकती है कि सरकार इसकी निष्पक्ष जांच
कराए। नक्सली सिर्फ अपने साथियों के पुनर्वास की मांग करें तो वार्ता सफल
हो सकती है। क्योंकि इसमें बहुत बड़ी अड़चन सरकार को नहीं होना चाहिए।
लेकिन वे अपने आंदोलन के असल मुद्दों पर चर्चा करते हैं तो सरकार को
अड़चन हो सकती है। भूमि सुधार से लेकर पूंजीपतियों को प्रोत्साहित करने
की नीति  के साथ क्या सरकार नक्सलियों से समझौता कर सकती है? नक्सली
राष्ट्र  की वर्तमान दशा और दिशा पर चर्चा करते हैं और सरकार उनके विचार
से सहमत होगी तभी नक्सली हिंसा का रास्ता छोड़ेंगे, तब तो समझौते की आशा
नहीं की जा सकती। यदि नक्सली इस तोहमत से मुक्त होने के लिए युद्घविराम
के लिए तैयार हैं कि वे बातचीत से जब समस्या का हल हो सकता है, तब उसके
लिए तैयार नहीं है तो युद्घविराम का कोई औचित्य तो रह नहीं जाता। यह बात
तो आइने की तरह साफ है कि सरकार माओवादी नीतियों से सहमत नहीं है। सरकार
और उसमें सम्मिलित राजनैतिक दलों की अपनी नीति और विचारधारा है और वे वही
बात नक्सलियों की मान सकते है जो उनकी विचारधारा से मेल खाती हो।
माओवादियों को अपनी विचारधारा से सरकार को चलाना है तो उसके लिए उन्हें
जनसमर्थन चाहिए। इसके लिए उन्हें चुनाव में उतरना पड़ेगा ओर वे जीतकर
अपनी सरकार बना सकते हैं तो फिर अपनी विचारधारा से देश को चला सकते हैं।
छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह नक्सलियों को चुनौती तो दे रहे
हैं कि चुनाव लड़कर देख लें। वैसे भी भारत में सत्ता का रास्ता चुनाव से
होकर ही गुजरता है। इस रास्ते को नक्सलियों की हिंसा से तो बदला नहीं जा
सकता। पश्चिम बंगाल में ही वामपंथियों की सरकार है। वर्षों से ममता
बेनर्जी उन्हें सत्ता से बेदखल करना चाहती हैं लेकिन अभी तक तो वे सफल
नहीं हुई। कहा भी जा रहा है कि आगामी चुनाव में वे सफल हो सकती हैं और
इसके लिए नक्सलियों के समर्थन की उनको जरूरत है। नक्सली और वामपंथी दोनों
एक ही विचारधारा से प्रभावित है। यदि समानता की दृष्टि से देखें तो
दोनों में हिंसा को छोड़कर समानता अधिक है लेकिन दोनों आमने सामने खड़े
हैं। वामपंथी सरकार को उखाडऩे के लिए ममता बेनर्जी को माओवादी वामपंथी ही
सहयोग कर रहे हैं। इसका यह अर्थ नहीं कि ममता बेनर्जी हिंसा   की समर्थक
हैं। उन्होंने भी कहा है कि माओवादी हिंसा छोड़ें।

माओवादी आज बातचीत करने के लिए तैयार हो रहे हैं तो उसका बड़ा कारण यह भी
है कि केंद्र सरकार के साथ मिलकर राज्य सरकारें नक्सलियों पर पूरा दबाव
बनाए हुई है। जैसे जैसे लडऩे की तैयारियों में वृद्घि हो रही है, माओवादी
भी  समझ रहे हैं कि सरकार पीछे हटने वाली नहीं है। फिर माफिया डान दाऊद
इब्राहिम जैसे कितने भी उसके मददगार हों, वह भारत सरकार और राज्य सरकार
की सामूहिक ताकत के सामने कितने समय तक टिक सकते हैं।  अब तो वायुसेना को
भी अपनी सुरक्षा में फायरिंग करने की सुविधा मिल गयी है। सशस्त्र बलों के
सिपाहियों, अधिकारियों की हत्या कर नक्सली अपने आपको बस्तर में जो अजेय
समझ रहे थे, उसका जवाब तो बस्तर के युवा कोया कमांडो के रूप में दे रहे
हैं। सरकार ने बलों की कमजोरी को समझा और उसका हल भी निकाल लिया है।
माओवादी कितने भी सशक्त हों लेकिन सरकार से मुकाबला अधिक समय तक नहीं कर
सकते। भले ही नक्सलियों की वार्षिक आय पंद्रह सौ करोड़ रूपये हो। करीब
करीब केंद्र सरकार पर काबिज कांग्रेस के जितनी लेकिन कांग्रेस अपने धन से
जो जनता में अपने पक्ष में माहौल बना सकती है, वह हिंसा के बल पर उतना ही
खर्च कर नक्सली नहीं बना सकते। दोनों की आय पंद्रह सौ करोड़ रूपये
वार्षिक है लेकिन एक देश की सत्ता पर काबिज है तो दूसरे को अवैध केंद्र
सरकार और राज्य सरकारों ने घोषित कर रखा है। नक्सलियों के हित में तो यही
है कि वे ममता बेनर्जी के सहयोग से बिना किसी शर्त के युद्घविराम कर दें
और अपने साथियों को मुख्यधारा में सम्मिलित होने का अवसर उपलब्ध कराएं।
खबर है कि 6 से 10 वर्ष के बच्चों को भी नक्सली अपनी फौज में भर्ती कर
रहे हैं। इससे वे कोई उनका भविष्य तो बना नहीं रहे हैं बल्कि ऐसा
बीजारोपण कर रहे हैं जो उनकी पूरी जिंदगी को नर्क में बना देगा। जब
बच्चों के खेलने कूदने, पढऩे लिखने की, माता पिता के वात्सल्य के साये
में जीवन व्यतीत करने का समय है, तब वे बंदूक थामकर लोगों की हत्या
करेंगे तो उनका भविष्य क्या होगा?

ये छोटे छोटे बच्चे जब स्वयं गोलियों का शिकार होंगे तो कौन सा ऐसा आदमी
होगा जो खुश हो सकता है? काश्मीर में ही अलगाववादी नेताओं के विषय में
जानकारी मिल रही है कि वे अपने बच्चों को विदेशों में शिक्षा दिलवा रहे
हैं और काश्मीर की युवा पीढ़ी के हाथ में पत्थर पकड़वा कर सशस्त्र बलों
पर फेंकने के लिए उकसा रहे हैं। गरीबों के बच्चों को जोर जबरदस्ती से
हथियार पकडऩे के लिए बाध्य करने से बड़ी अमानुषिकता और क्या हो सकती है?
स्कूल के भवन बमों से उड़ाकर युवा पीढ़ी को शिक्षा से महरूम करना कौन सी
प्रगतिशीलता है। आश्चर्य तो तब होता है जब चंद पढ़े लिखे बुद्घिजीवी इन
नक्सलियों का समर्थन करते हैं। जीने के अधिकार से बड़ा तो कोई अधिकार
नहीं होता। जो किसी के भी जीने का अधिकार छीन लेता है और जोर जबरदस्ती से
अपनी बात या विचारधारा मानने के लिए विवश करता है, उससे सहमत नहीं हुआ जा
सकता। इसीलिए नक्सल प्रभावित क्षेत्र के लोग भी नक्सलियों से सहमत नहीं
हैं। आम आदमी के मन में किसी भी तरह की सहानुभूति माओवादियों की प्रति
नहीं है। अभी भी समय है। सरकार नक्सलियों के प्रति दयालुता का भाव रखती
है। सरकार किसी भी तरह की बदला लेने की नीति पर काम नही  करती। पैकेज तो
पहले से ही सरकार ने घोषित कर रखा है। बेकार की हेकड़बाजी छोड़कर
मुख्यधारा में आने का जो अवसर मिल रहा है। उसका सदुपयोग करना चाहिए। यही
अक्लमंदी का भी तकाजा है।

-विष्णु सिन्हा
18-8-2010