यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

शुक्रवार, 6 अगस्त 2010

पुलिस को कल मिली सफलता पुलिस का ही नहीं जनता का भी मनोबल बढ़ाने वाला है

नक्सलियों के बड़े हमले को नाकाम करने में पुलिस को मिली सफलता ने एक बात
तो तय कर दी है कि नक्सली अजेय नहीं हैं। पुलिस ने अपना एक भी साथी नहीं
खोया और नुकसान नक्सलियों को ही उठाना पड़ा। खबर है कि 4-5 नक्सली मारे
गए और 1 नक्सली का शव तो पुलिस अपने साथ भी ले आयी। नक्सलियों ने पूरी
तैयारी के साथ पुलिस पार्टी पर हमला किया था। पुलिस की मदद के लिए और
फोर्स न आ जाए, इसलिए जगह जगह पेड़ों को काटकर मार्ग भी अवरूद्घ कर दिया
था। हेलीकाफटर से मदद न मिले, इसलिए बरसात के समय का चयन किया। पुलिस
पार्टी की मदद के लिए 5 सौ जवानों को भेजा भी गया लेकिन वे वाहन के साथ
मार्ग अवरूद्घ होने के कारण पहुंच नहीं सके और बरसात के कारण हेलीकाफटर
से भी जवानों को पहुंचाया नहीं जा सका। स्थिति और परिस्थिति की समीक्षा
करें तो सब कुछ नक्सलियों के पक्ष में था लेकिन फिर भी पुलिस पार्टी ने
नक्सलियों को भागने के लिए बाध्य कर दिया। 4-5 घंटे की मुठभेड़ के बाद
इससे यह तो निष्कर्ष निकलता है कि नक्सलियों की रणनीति को पुलिस पार्टी
ने असफल कर दिया।

अभी तक सशस्त्र बल के जवान ही मारे जाते रहे हैं और इससे स्वाभाविक रूप
से नक्सलियों का मनोबल बढ़ा हुआ था। वे स्वयं को अपराजेय समझने लगे हों
तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। क्योंकि प्रारंभिक सफलता ऐसे ही मनोभाव पैदा
करती है। पिछले नुकसान से पुलिस ने नक्सलियों की रणनीति को समझा है और
उसके अनुसार अपनी रणनीति बनायी है। विपक्ष के विधायकों ने भी मुख्यमंत्री
डा. रमन सिंह से रणनीति का खुलासा करने के लिए कहा था लेकिन रमनसिंह ने
इंकार कर दिया था। उस रणनीति का औचित्य ही क्या रह जाता है जो सबकी
जानकारी में आ जाए। रणनीति की गोपनीयता ही उसकी सफलता का मुख्य कारण होती
है। अभी तक छत्तीसगढ़ की सरकार को नक्सली मामले में कठघरे में खड़ा करने
की कोशिश करने वालों को कल की घटना के बाद तो जवाब मिल ही गया कि न तो
सरकार और न ही पुलिस बल का मनोबल कमजोर हुआ है।

कांकेर में खोले गए जंगल वार प्रशिक्षण स्कूल के परिणाम अब सामने आने लगे
हैं। जिस तरह की पुलिस फोर्स विरासत में डा. रमन सिंह को मिली थी, उसके
द्वारा नक्सलियों से लडऩा आसान काम नहीं था। सीआरपीएफ को भी
जंगलवार का पर्याप्त प्रशिक्षण नहीं है। एसपीओ के रूप में जब बस्तर के
युवकों के हाथ में बंदूक थमायी गयी थी तब भी इसका विरोध उच्चतम न्यायालय
तक में किया गया। प्रशिक्षण के बाद से ही एसपीओ आज प्रशिक्षित कमांडो के
रूप में बस्तर के जंगलों में नक्सलियों को भयभीत कर रहे हैं। जिस तरह से
बस्तर की जानकारी नक्सलियों को है और यही उनके बचाव और सुरक्षा का कारण
बनता है। वह स्थिति इन कमांडों के कारण नक्सलियों की रही नहीं। यह तथ्य
तो उजागर हो चुका है कि बस्तर के ये जांबाज कामंडों से ही नक्सली सबसे
ज्यादा घबराते हैं। जैसे जैसे वक्त गुजरता जाएगा, इन प्रशिक्षित कमांडों
की संख्या बढ़ती जाएगी। इनके साथ ही पुलिस के अन्य बल प्रशिक्षित
होते जाएंगे और धरातल की असलियत से भी परिचित होते जाएंगे।
दो स्कूल और खुल रहे हैं। मतलब प्रशिक्षित लोगों की संख्या में पर्याप्त
इजाफा होगा। एक बार इस लड़ाई में नक्सली बैकपुट पर गए तो जनता का मनोबल
भी बढ़ेगा। बार बार सशस्त्र बल के जवानों की नक्सलियों के द्वारा की जा
रही हत्या से आम जनता में भी भय तो पैदा होता है। जनता भयमुक्त हुई तो
नक्सलियों को शरण मिलना कठिन हो जाएगा। आखिर कितना भी जंगल में रहो लेकिन
जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए तो समाज के पास ही आना पड़ता है।
पेट की क्षुधा शांत करने के लिए अनाज भी तो शांतिप्रिय किसान ही उत्पादित
करता है। फिर बीमारी में दवा के लिए भी समाज के पास ही आना पड़ता है। एक
बार समाज भयमुक्त हुआ और सुविधाएं मिलना बंद हुई तो कितने दिन नक्सली
बंदूक लेकर रह पाएंगे। बंदूक की गोली किसी की जान भले ही ले ले लेकिन पेट
की भूख को तो शांत नहीं कर सकती। लोग मरने के डर से गैरवाजिब इच्छाएं
पूरी करने के लिए भले ही बाध्य हों लेकिन पहला अवसर सुलभ होते ही वे इस
तरह के अन्याय को बर्दाश्त करने की मंशा नहीं रखते।

कल मिली पुलिस बल की सफलता से आम आदमी का भी मनोबल बढ़ा है। जब प्रारंभिक
खबर आ रही थी तब तो ऐसा ही लग रहा था कि फिर हमारे जवान शहीद न हो जाएं।
क्योंकि पूर्व इतिहास इसकी चुगली करता है लेकिन जब यह खबर मिली कि जवान
सुरक्षित हैं और नुकसान नक्सलियों का हुआ है तब सभी को इस समाचार ने
प्रसन्न ही किया। हर शांतिप्रिय व्यक्ति की तो एक ही इच्छा है कि नक्सल
समस्या से मुक्ति मिले। प्रदेश में शंाति का माहौल बने जिससे आम आदमी की
सुख सुविधा ही सिर्फ न बढ़े बल्कि वह सुरक्षित रहे। बस्तर की सुरम्य
घाटियों में प्रकृति का अद्वितीय नजारा सभी के लिए सुलभ हो। हमारे
आदिवासी भाई बहन अन्याय से मुक्त होकर अपना जीवन स्वतंत्रतापूर्वक व्यतीत
करें। विकास का पूरा लाभ उन्हें मिले। उनकी भी भावी पीढ़ी मुख्यधारा का
अंग बने। बारूद के धमाके से मुक्ति मिले।

आदमी का मूल स्वभाव आशा है। जब सब तरफ निराशा के घनघोर बादल छाए हों तब
भी आशा ऐसा मानसिक तत्व है जो व्यक्ति को जीने के लिए सहारा बनता है। आशा
जिलाती है। कल नक्सलियों को भागने के लिए बाध्य कर पुलिस के जवानों ने
आशा की किरण दिखायी है। डा. रमन सिंह की नीति को उचित ठहराया है। विश्वास
जागृत हुआ है। डा. रमन सिंह पर विश्वास बढ़ा है। उम्मीद ने जन्म लिया है
कि यह व्यक्ति नक्सली समस्या से क्षेत्र को मुक्त कराए बिना दम नहीं लेने
वाला। पुलिस बल को एक दो सफलता और मिली तो दृश्य पूरी तरह से बदल जाएगा।
नक्सली हिंसा को लेकर सरकार को कठघरे में खड़ा करने वालों को भले ही इससे
प्रसन्नता न हो कि उनके हाथ से सरकार के विरूद्घ मुद्दा निकला जा रहा है
लेकिन इनकी प्रसन्नता अप्रसन्नता से जनता को कोई लेना देना नहीं है।
जनता तो मुक्ति चाहती है। डा. रमन सिंह से उम्मीद है। इसीलिए तो बस्तर ने
एक तरफा समर्थन डा. रमन सिंह को दिया है। डा. रमन सिंह अपनी
जिम्मेदारी अच्छी तरह से समझते हैं और इसी कारण वे इस्तीफा देकर पलायन की
मानसिकता नहीं पालते। कांग्रेसी तो हमेशा एक ही नारा हर घटना के बाद
लगाते हैं कि डा. रमन सिंह इस्तीफा दे। वे तो केंद्र सरकार से भी मांग
करते हैं कि राष्टपति शासन लगाया जाए लेकिन उन्हीं की केंद्र सरकार
उनकी बात पर कान भी नहीं देती। नक्सली पकड़ में भी आ रहे हैं। मुठभेड़ों
में मारे भी जा रहे हैं। थानों पर नक्सलियों के हमले विफल हो रहे हैं। कल
पुलिस ने विपरीत परिस्थितियों में बड़ी लड़ाई जीती है। अब पुलिस को भी
जीत का चस्का लगना चाहिए।

- विष्णु सिन्हा
5-7-2010

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