यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

गुरुवार, 26 अगस्त 2010

मनोज साहू को शराब की आदत नहीं होती तो वह नृशंस हत्यारा बनने से बच सकता था

तीन मासूम बच्चों की नृशंस हत्या करने वाला पुलिस की पकड़ में आ ही गया।
मनोज साहू और कुंदन साहू को पुलिस ने पकड़ लिया। उम्र के हिसाब से देखें
तो ये दोनों भी अभी नाबालिग ही हैं। फिर भी मनोज साहू ने चोरी के साथ
नृशंस हत्या जैसा जुर्म किया। किसी दूर दराज के अंजान बच्चों का नहीं,
अपने पड़ोस में ही रहने वाले बच्चों का। कहा जा रहा है कि चोरी कर घर से
निकलते मनोज को इन बच्चों ने देख लिया था और चोरी के जुर्म में पकड़ में
न आ जाए, इसलिए मनोज ने तीनों बच्चों को घर के अंदर ले जाकर डंडे, हसिया
से पहले मारा और फिर भी बच्चों की धड़कनें बंद नहीं हुई तो मिट्टी  का
तेल डालकर जला दिया। इस उम्र में जिनका हृदय पूरी तरह से संवेदनशील होना
चाहिए था, वह क्रूरता की सभी सीमाओं को लांघ गया। किसी जिंदा इंसान को
जान से मारना ही कम क्रूरता नहीं है, उस पर जिंदा जला देना तो इसी तरफ
इशारा करता है कि हत्यारे के हृदय में दया मया जैसे कोई भाव ही नहीं थे।
हत्या के बाद सबूतों को नष्ट करने के लिए तालाब में डाल देना और फिर
अपने कार्यस्थल पर जाकर काम करना, एक अनुभवी अपराधी होने की तरफ ही इशारा
है। जो लड़का पहले से ही नौकरी कर रहा हो। फिर भी उसका खर्च पूरा न हो
रहा हो। तभी वह चोरी जैसे अपराध की तरफ आकर्षित होता है। शराब पीने और
जुंआ खेलने की आदत हो तो कितना भी कमाओ कम ही पड़ेगा। 16 वर्ष का युवक
शराब पीता है, जुंआ खेलता है। कोई उसे रोकने समझाने वाला नहीं है कि गलत
काम है। जिंदगी बर्बाद हो जाएगी। एक शराब ही जो गुल न खिलाए कम है।
नाबालिग को शराब बेचना वैध नहीं है लेकिन गांव-गांव और गली-गली जब शराब
बिक रही हो और अधिक से अधिक शराब बेच कर धन कमाना जिनका उद्देश्य है,
उन्हें क्या लेना-देना कि किसे शराब बेचना सही है और किसे गलत? ऐसा नहीं
है कि गांव के लोग और मनोज के परिवार के लोग मनोज की आदत से परिचित नहीं
थे। शराब तो ऐसी चीज है कि कोई उसका सेवन करें तो उसके मुंह से ही इतनी
दुर्गंध आती है कि जो भी मिलेगा, उसे पता चल जाएगा कि सामने वाले ने शराब
पी रखी है।

जगह-जगह शराब दुकानों के विरुद्ध आंदोलन होते हैं। महिलाएं ही आगे बढ़ कर
आंदोलन करती हैं। क्योंकि महिलाएं अच्छी तरह से जानती हैं कि जब उनके घर
के किसी आदमी को शराब की लत लग जाती है तो पूरे परिवार को उसका परिणाम
भोगना पड़ता है। नशे की गिरफ्त में एक बार आदमी आ गया तो फिर अच्छे बुरे
का बोध भी नशा समाप्त कर देता है। नशे की लत पहले तो स्वयं का धन हर लेती
हैं। फिर कर्ज मिले तो कर्जदार बना देती है। कर्जा बढ़ जाए तो जमीन
जायदाद बिकवा देती है। न बेच सकें तो फिर चोरी या दूसरे तरह के अपराध की
तरफ ढकेल देती है। मनोज और कुंदन को शराब की लत नहीं होती तो शायद वे
जुंआ खेलने से बच जाते। जुंआ खेलने से नहीं भी बचते तो भी चोरी की तरफ तो
आकर्षित नहीं होते। चोरी की तरफ आकर्षित नहीं होते तो पकड़े जाने के भय
से नृशंस मासूम बच्चों को हत्या क्यों करते?

शराब पीकर आदमी शेर हो जाता है। अपने भय पर वह विजय प्राप्त कर लेता है।
उसे पीने से ज्यादा अच्छा आनंददायक कोई काम नहीं दिखायी देता। शराब न
मिले तो शरीर दर्द करता है। बेचैनी लगती है और जीवन में फिर कुछ समझ में
नहीं आता। शराब ही नहीं अधिकांश नशे के नशेडिय़ों की यही स्थिति होती है।
फिर यह बेचैनी अच्छे बुरे का फर्र्क समाप्त कर देती है। नशेड़ी नशे के
लिए सब कुछ करने के लिए तैयार हो जाता है। बहुत विरले ही अपराधी होते हैं
जो किसी न किसी तरह का नशा नहीं करते। महात्मा गांधी ने नशे का इसीलिए
विरोध किया लेकिन कांग्रेस सरकारों ने ही जगह-जगह शराब की दुकानें
खुलवायी। आज स्थिति यह है कि शराब से जो राजस्व सरकारों को प्राप्त होता
है, उसके कारण सरकारें शराब पर पाबंदी लगाने के लिए सहमत नहीं हैं। चुनाव
के समय तो ऐसी स्थिति निर्मित होती है कि जो प्रत्याशी शराब न बांटें उसे
शराबी वोट देने के लिए तैयार नहीं। शराब ठेकेदार सरकार को बड़ा राजस्व तो
देते ही हैं, इसके साथ चुनाव के समय या वक्त बेवक्त राजनैतिक पार्र्टियों
को अच्छा चंदा भी देते हैं। इतने उपयोगी व्यक्ति को सरकार का संरक्षण
मिलता है तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं। सरकार ही क्यों विपक्ष में
बैठे लोगों का भी सहयोग मिलता है।

जो शराब अपराध की जड़ में है, जब उसे ही सरकारें रोक नहीं सकती तो अपराध
कैसे रुकेंगे? जुंआ, शराब भले ही बड़े लोगों के लिए आनंद, सुख प्राप्त
करने का साधन हों लेकिन गरीब के लिए तो परिवार को भूखे मारने का साधन है।
ऐसा नहीं है कि सरकारों पर बैठें लोग इस विषय को समझते नहीं। वे अच्छी
तरह से समझते हैं। फिर भी उनकी अंतर्आत्मा जागृत नहीं होती। मनोज साहू को
जब पुलिस ने पकड़ा तो पूरा गांव मनोज साहू का वहीं फैसला कर देना चाहता
था। आक्रोशित जनता के हाथ मनोज साहू लग जाता तो उसकी खैर नहीं थी। ऐसा ही
आक्रोश लोग शराब और जुएं सामाजिक बुराइयों के प्रति दिखाएं तो बुराई की
क्या मजाल जो वह कायम रहे।

स्वंतत्रता संग्राम के समय महात्मा गांधी ने सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध
भी आंदोलन चलाया। आज तो नशाबंदी के विरुद्ध कोई आंदोलन ही कहीं दिखायी
नहीं पड़ता। अपने इलाके से शराब दुकान हटाने के लिए अवश्य छुटपुट आंदोलन
होते हैं लेकिन प्रदेश या राष्ट स्तर पर नशा विरोधी आंदोलन जैसी कोई
बात ही नहीं रही। नशाबंदी तो दूर की बात है, महंगाई से त्रस्त जनता ही
सरकारों के विरुद्ध आंदोलन नहीं खड़ा कर पा रही है। नशे के विरोध में कोई
कुछ करता दिखायी पड़ता है तो वह स्वामी रामदेव ही है। जो योग करने वालों
से नशा छुड़ाने का प्रयास करते हैं। जनता नशा करे, इसी में राजनैतिक
पार्टियों को लाभ दिखायी देता है। क्योंकि नशे की खुमारी से जनता का एक
वर्ग बाहर निकल आया तो होशपूर्वक वह जो कुछ हो रहा है, उसे बर्दाश्त नहीं
कर पाएगा।

दरअसल वास्तविकताओं से पलायन करने में नशा उपयोगी सिद्ध होता है। जिन्हें
भी वर्तमान स्वीकृत नहीं और वे लड़ नहीं सकते परिस्थितियों से, वे भी नशे
की तरफ आकर्षित होते हैं। फिर नशा उन्हें अपनी पकड़ में ले लेता है। जब
तक नशे के आगोश में रहते हैं तब तक तो अच्छा लगता है। नशा टूटा और जीवन
की वास्तविकताएं परेशान करने लगती है। कभी चीन भी अफीम की जकड़ में था।
जब तक अफीम के नशे में चीनी थे तब तक राजा को शासन करने में कोई अड़चन
नहीं थी। क्रांति के लिए माओ को चीनियों को अफीम के नशे से बाहर निकालना
पड़ा। आज स्थिति यह है कि अमेरिका के बाद चीन दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक
और सामरिक शक्ति है। वह दिन दूर नहीं जब अमेरिका भी पीछे छूट जाए। नशा
नैतिक मूल्यों का हास करने में प्रमुख भूमिका निभाता है। मनोज साहू के ही
बहाने विचारणीय तो है ही कि नशा कहां ले जाएगा?

- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 25.08.2010
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