की और कमी हो गयी है। इसके पूर्व भटगांव के विधायक रविशंकर त्रिपाठी की
एक दुर्घटना में मृत्यु के कारण संख्या बल विधानसभा में भाजपा का कम हुआ
है। आम चुनाव में भाजपा के 50 विधायक चुने गये थे और अब 47 रह गए हैं।
वैशाली नगर की सीट उपचुनाव में भाजपा बचा नहीं पायी थी। कांग्रेस के
भजनसिंह निरंकारी ने वैशाली नगर की सीट भाजपा से छीन ली थी। इस समय
विधानसभा में भाजपा के 47, कांग्रेस के 39 और बसपा के 2 विधायक हैं। 90
सदस्यीय विधानसभा जब तक रिक्त विधानसभा क्षेत्रों के उपचुनाव नहीं होते
तब तक 88 सदस्यीय हो गयी है। बहुमत के लिए अभी 45 सदस्यों की जरूरत है और
भाजपा के 47 विधायक हैं। कांग्रेस और बसपा के विधायकों को जोड़ दिया जाए
तो विपक्ष में 41 विधायक हैं। सामान्य दृष्टि से देखें तो भाजपा के पास
विपक्ष से 6 विधायक अधिक हैं। इनमें से दो विधायक विधानसभा अध्यक्ष और
उपाध्यक्ष हैं लेकिन किन्हीं विपरीत परिस्थितियों में मतदान का अवसर आए
तो ये अपने मत से सरकार को बचा सकते हैं।
भटगांव में उम्मीद की जा रही है कि अक्टूबर में उपचुनाव होगा। चुनाव आयोग
चाहे तो बालोद में भी अक्टूबर में चुनाव हो सकता है। ये दोनों सीटें
भाजपा के लिए जीतना जहां प्रतिष्ठï का प्रश्र है, वहीं कांग्रेस के लिए
भी कम प्रतिष्ठï का विषय नहीं है बल्कि ज्यादा ही है। दोनों सीटों को
जीतकर भाजपा यह सिद्घ करेगी कि उसकी लोकप्रियता कायम है और उसकी सरकार को
दूर दूर तक खतरा नहीं है। वहीं कांग्रेस उन सीटों को जीत लेती है तो
विधानसभा में उसकी संख्या 41 हो जाएगी और बसपा के साथ मिलकर विपक्ष की
ताकत 43 विधायकों की हो जाएगी। जिसका अर्थ होता है कि भाजपा के 5
विधायकों को कांग्रेस किसी तरह से अपने पक्ष में कर ले तो वह भाजपा की
सरकार को सत्ताच्युत कर सकती है। वैसे जब तक पक्ष और विपक्ष में बराबर मत
न पड़े तब तक अध्यक्ष को मतदान में नैतिक रूप से हिस्सा नहीं लेना चाहिए।
उस स्थिति में तो 4 विधायक ही भाजपा के दल बदल भले हीन कर सकें लेकिन
विधायकी छोडऩे के लिए भी राजी हो जाएं तो कांग्रेस भाजपा के हाथ से सत्ता
छीन सकती है।
इसलिए भाजपा के लिए उपचुनाव में दोनों सीट जीतना आवश्यक हो गया है। अभी
तक तीसरी बार सरकार बनाने के लिए तैयारी करने की बात भाजपा में हो रही
है। यदि खुदा न खास्ता भटगांव और बालोद चुनाव जीतने में भाजपा असफल सिद्घ
होती है तो तीसरी बार की तैयारी तो बाद की बात है, अभी ही सरकार की
स्थिति डगमग हो सकती है। 7 वर्ष से सत्ता से बाहर बैठे कांग्रेसियों के
लिए तो स्वर्ण अवसर है लेकिन प्रश्र यही है कि गले तक गुटबाजी में फंसी
कांग्रेस इस अवसर का लाभ उठाने के लिए तैयार है। उत्तर नकारात्मक ही
आएगा। यह बात दूसरी है कि जिस प्रत्याशी को कांग्रेस टिकट दे, वह कोई
चमत्कार दिखा दे। वैसे तो कांगेस भाग्य भरोसे ही है लेकिन मुख्यमंत्री
फिर से बनने की लालसा रखने वाले अजीत जोगी के लिए तो अवसर ही अवसर है।
जोड़ तोड़ और गुणा भाग के राजनैतिक गणित के प्रकांड पंडित माने जाने वाले
अजीत जोगी सरकार उलटने और अपनी बनाने का प्रयास तो कर ही सकते हैं। उनकी
ऐसी काबिलयत का दूसरा नेता छत्तीसगढ़ की कांग्रेस में कोई है तो वह
मोहम्मद अकबर ही हैं।
भटगांव की चुनाव कमान तो भाजपा ने अपने अजेय योद्घा बृजमोहन अग्रवाल के
हाथों में सौंप दी है। जिस भी चुनाव की जिम्मेदारी उन्होंने संभाली है तो
उसमें सफलता का ही उनका रिकार्ड है। चुनाव लडऩे और जीतने की कला के वे
मर्मज्ञ हैं। वैशाली नगर की भी जिम्मेदारी उन्हें सौंपी गयी होती तो वे
जीत का परचम फहरा सकते थे। दूसरा कोई भाजपा के पास ऐसा सेनापति नहीं है
जो जीत की गारंटी दे सके। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि सहानुभूति वोट भी
हमेशा काम नहीं आते। जीत में भूमिका तो सहानुभूति की होती है लेकिन सामने
अच्छा प्रत्याशी कांग्रेस ने उतार दिया तो बिल्ली रास्ता काट देगी।
भटगांव तो बृजमोहन अग्रवाल संभाल लेंगे लेकिन बालोद कौन संभालेगा ? अभी
से वहां की भी जिम्मेदारी तय कर देना चाहिए।
कांग्रेस आज वहां है जहां उसके पास खोने के लिए तो कुछ नहीं है लेकिन
पाने के लिए सब कुछ है। भटगांव और बालोद जीतकर वह विधानसभा 2013 का चुनाव
जीतने की अभी से तैयारी कर सकती है। क्योंकि इन दोनों उपचुनाव के
परिणामों का दूर तक असर होगा। कांग्रेस का भाग्य साथ दे गया और उसने
ईमानदारी से चुनाव लड़ा तो हो सकता है कि उसे सत्ता में आने के लिए 2013
तक इंतजार न करना पड़े। उपचुनाव में जीत भाजपा विधायक दल के भीतर व्याप्त
असंतोष को बढ़ाने वाला सिद्घ होगा। भाजपा के अंदर सत्ता संघर्ष भी
प्रारंभ हो सकता है। सत्ता में रहते हुए अजीत जोगी ने भाजपा के 14
विधायकों को अपने पक्ष में कर ही लिया था। मनमोहन सिंह ने अपने पिछले
कार्यकाल में भाजपा सांसदों के सहयोग से विश्वास मत प्राप्त कर ही लिया
था। लोकसभा में प्रश्र पूछने के लिए धन लेते भाजपा के ही सबसे ज्यादा
सांसद पकड़े गए थे। इसलिए असंभव तो कुछ नहीं।
कांग्रेस के पास भी तुरूप का इक्का मोहम्मद अकबर है। कभी भाजपा के सबसे
लोकप्रिय विधायक, मेयर रहे तरूण चटर्जी को पार्षद चुनाव में हराने की
जिम्मेदारी जब मोहम्मद अकबर को विद्याचरण शुक्ल ने सौंपी थी तब मोहम्मद
अकबर ने तरूण को हरवा दिया था। रायपुर से दूर वीरेन्द्र नगर और पंडरिया
से उन्होंने विधानसभा का चुनाव जीत कर अपनी योग्यता प्रदर्शित कर ही दी
है। उपचुनाव की भी जिम्मेदारी कंग्रेस मोहम्मद अकबर को सौंपने के लिए
तैयार होती है, अभी से तो कांग्रेस उम्मीद कर सकती है, जीत की। किरणमयी
नायक जैसी ऊर्जावान प्रत्याशी को टिकट देकर मोहम्मद अकबर को जितवाने का
बीड़ा सौंपा जाता है तो कांग्रेस की संभावनाएं बढ़ सकती है। फिर ये सीटें
कांग्रेस की नहीं थी। भाजपा ने इन सीटों पर जीत का परचम फहराया था। इसलिए
भाजपा से उसकी सीट छीनकर कांग्रेस अपनी भविष्य की संभावनाओं की नई कथा
लिख सकती है।
लेकिन प्रश्र यही है कि कांग्रेस के गुटबाज नेता क्या मोहम्मद अकबर का
आगे बढऩा पसंद करेंगे? मोहम्मद अकबर ने जीत दिला दी तो फिर उन तथाकथित
बड़े नेताओं का क्या होगा? कार्यकर्ता तो जीत चाहता है लेकिन नेता भी
चाहते हैं क्या? यही कांग्रेस के लिए वह गणित है जिसका हल आलाकमान को
करना है। भाजपा में इस तरह की कोई बात नहीं है। डा. रमन सिंह बृजमोहन
अग्रवाल को जीत की जिम्मेदारी सौंपते हुए किसी भी तरह की असुरक्षा महसूस
नहीं करते। उन्हें इस बात का डर नहीं है कि बृजमोहन अग्रवाल जीतकर उनकी
गद्दी के दावेदार हो सकते हैं। आलाकमान की नजरों में चढ़ सकते हैं। वे इस
मामले में निष्फिक्र हैं लेकिन कांग्रेसी नेता तो किसी का भी बढ़ता कद
देखकर असुरक्षा महसूस करते हैं। जरा सा भी अभास हो जाए तो कद बढ़ाते नेता
के पर कतरने के लिए तरीका ढूंढऩे लगते हैं। जो अपना स्वयं कल्याण न करना
चाहे, उसके कल्याण के लिए जनता भी क्यों सोचें?
- विष्णु सिन्हा
23-08-2010