काश्मीर में आतंकवादी सिखों को धमकियां दे रहे हैं। काश्मीर में रहना है
तो इस्लाम धर्म स्वीकार करो या फिर घाटी छोड़ दो। जब यह मामला लोकसभा में
अकाली दल के रतनसिंह अजवाला ने उठाया तो केंद्रीय वित्तमंत्री प्रणव
मुखर्जी ने आश्वासन दिया कि इस मामले की पूरी जानकारी सरकार को है और न
केवल घाटी के मुसलमान वरन पूरा भारत सिखों की रक्षा के लिए उठ खड़ा होगा।
काश्मीर से जब काश्मीरी पंडितों को पलायन के लिए बाध्य किया गया तब सरकार
ने क्या कर लिया? काश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला, उनके पिता फारूख
अब्दुल्ला और भारत सरकार काश्मीरी पंडितों को आश्वासन ही देते रहे लेकिन
कर कुछ नहीं सके। इस सत्य और तथ्य से इंकार तो नहीं किया जा सकता। एक बार
काश्मीर छोडऩे के बाद काश्मीरी पंडितों को दोबारा काश्मीर में स्थापित तो
नहीं किया जा सका। आज काश्मीर में सिखों को उसी तरह की स्थिति का सामना
करना पड़ रहा है जिस तरह का सामना काश्मीरी पंडितों ने किया था। सरकार
कितना भी आश्वासन दे लेकिन आज जो काश्मीर की हालत है, उसमें कोई गैर
मुस्लिम अपने को कैसे सुरक्षित महसूस कर सकता है?
इस तरह की धमकियों के पीछे का असली सत्य तो किसी से छुपा हुआ नहीं है।
आतंकवादियों की मंशा एकदम स्पष्ट है कि काश्मीर पूरी तरह से इस्लामी
राज्य हो जाए तो फिर काश्मीर को भारत से अलग करने में सुविधा होगी। इसके
साथ ही वे सिखों हिंदुओं को देश भर में भड़काना चाहते हैं। खासकर सिखों
को। क्योंकि आतंकवादी जानते हैं कि सिख एक जुझारू कौम है। उनका इतिहास
अन्याय के विरूद्घ सिर झुकाने का नहीं रहा है। बड़े बड़े बादशाहों के
समक्ष तो सिख गुरूओं और सिखों ने न तो धर्म से पलायन किया और सिर भले ही
कटा दिया लेकिन झुकाना नहीं सीखा। इसीलिए जब काश्मीरी पंडितों को काश्मीर
छोडऩे के लिए बाध्य किया गया तब सिखों के साथ अन्याय से परहेज किया गया।
अब काश्मीर में आतंकवादी चाहते हैं कि सिख उनका समर्थन करें या घाटी
छोड़कर चले जाएं। सिख भारत से अलग काश्मीर का समर्थन नहीं करने वाले हैं,
यह बात आतंकवादी अच्छी तरह से जानते हैं। वे यह भी जानते हैं कि वे कितना
भी खून खराबा कर लें लेकिन जब तक सिख काश्मीर घाटी में हैं तब तक वे अपने
मकसद में कामयाब नहीं हो सकते।
धर्म की आड़ में काश्मीरी मुसलमानों को न दबाया जाए तो काश्मीरी भारत के
साथ ही रहना पसंद करेंगे। वे अच्छी तरह से जानते हैं कि जिस स्वतंत्रता
के साथ वे भारत में रहते हैं और पूरे भारतवर्ष में उनके लिए जिस तरह का
सदभाव है, वह पाकिस्तान में नहीं मिलेगा। इसीलिए वे आतंकवादियों के विरोध
के बावजूद चुनाव में भाग लेते हैं और अपनी सरकार बनाते हैं। उमर
अब्दुल्ला हों या गुलाम नबी आजाद ये काश्मीरी हैं। भारत में तो कितने ही
प्रदेश के मुख्यमंत्री ऐसे हैं जो उस प्रदेश के मूल निवासी
नहीं है लेकिन वे उस प्रदेश को अपना मानते हैं और वहां की जनता भी उन्हें
स्वीकार करती है। स्थानीयता की भावना भड़का कर अपना राजनैतिक उल्लू सीधा
करने की कोशिश करने वालों को मुह की ही खानी पड़ी है। काश्मीर से
कन्याकुमारी तक भारत एक है। यह उक्ति हर किसी की जुबान पर है।
काश्मीर को अलग तरह का दर्जा देकर पूर्व राजनीतिज्ञों ने पृथकतावाद की
जड़ों का पोषण किया। भाजपा ने यह मामला उठाया भी था कि धारा 370 समाप्त
करेगी, उसकी सरकार बनने पर, लेकिन वह सरकार बनाने के बावजूद अपने समर्थक
दलों को इसके लिए तैयार नहीं कर सकी। इतिहास की भूलें कभी कभी भावी पीढ़ी
के लिए बड़ी समस्या का रूप ले लेती है। इसका ज्वलंत उदाहरण काश्मीर है।
यदि धारा 370 नहीं होती और हर भारतीय को जिस तरह से जमीन खरीदने, रोटी
रोजगार कमाने की पूरे देश में संविधान ने अधिकार दिया है उसी तरह का
अधिकार काश्मीर में भी होता तो आज काश्मीर में पृथकतावाद की समस्या ही
नहीं होती। काश्मीर के साथ सामान्य व्यवहार के बदले जो विशेष व्यवहार
किया गया, वही असली जड़ है, काश्मीर समस्या की। सबसे बड़ी बात तो यही है
कि पाकिस्तान ने काश्मीर का जो हिस्सा कब्जा कर रखा है, उसे 63 वर्ष की
आजादी में हम वापस प्राप्त नहीं कर सके। हमारी राजनैतिक इच्छा शक्ति की
कमजोरी का इससे बड़ा दूसरा उदाहरण कोई है तो वह चीन के द्वारा कब्जा किए
गए भूभाग को वापस प्राप्त न करना है।
स्वतंत्रता के बाद से ही सत्ता निरंतर कांग्रेस के हाथ में रही है।
तुष्टिकरण के बदले व्यवहारिकता से समस्या का हल ढूंढऩे का प्रयास नही
किया गया। जहां शासन को समस्या को जड़ मूल से समाप्त करने के लिए कड़े
निर्णय लेने की जरूरत होती है, वहाँ नरमी से काम निकालने की प्रवृत्ति ने
भी समस्या को बढ़ाया ही है। पाकिस्तान जैसा देश काश्मीर में मनमानी करने
पर उतारू है। किसी भी भारतीय को इसमें शक शुब्हा नहीं है। वहीं चीन
अरूणाचल प्रदेश सहित भारत की भूमि पर भी भी कुदृष्टि रखे हुए हैं। हमारे
प्रधानमंत्री काश्मीर को स्वायत्तता देने के लिए भी तैयार हैं। वे
काश्मीर में शांति चाहते हैं और मांग जायज है या नाजायज इससे उन्हें कोई
लेना देना नहीं है। काश्मीर को एक बार स्वायत्तता दे दी गई तो फिर दूसरे
प्रदेशों को इस तरह की मांग करने से कैसे रोका जा सकेगा? सरकार आज को
देखकर फैसला लेती है, वह कल के लिए तो समस्या खड़ी करती है। सांसदों की
वेतनवृद्घि का ही मामला लें। सरकार ने 50 हजार रूपये वेतन सहित भत्तों की
वृद्घि का प्रस्ताव किया तो सांसद इसका विरोध कर रहे हैं। प्रणव मुखर्जी
ने आश्वासन दिया है कि वे प्रधानमंत्री से चर्चा कर रास्ता निकालेंगे तो
सांसद अब संसद चलाने के लिए तैयार हो गये हैं।
निर्णय गुण दोष के आधार पर होना चाहिए, न कि दबाव के आधार पर। कहा जा रहा
है कि अभी जो वेतन और भत्ते वृद्घि का प्रस्ताव है, उसके अनुसार प्रति
सांसद सरकार को साढ़े तीन लाख खर्च प्रतिमाह आएगा। जबकि 56 प्रतिशत सांसद
करोड़पति हैं। सोच का विषय यह भी होता कि आर्थिक रूप से अक्षम सांसदों को
आर्थिक लाभ पहुंचाया जाए तब भी मांग न्यायोचित तो लगती लेकिन नहीं सभी एक
समान हैं तो एक समान सरकारी सुविधाओं के हकदार। जो लोग निर्णय करने के
अधिकारी हैं, उन्हें अच्छी तरह से पता है कि सारा बोझ आना अंतत. जनता के
ऊपर ही है लेकिन जनता की फिक्र ही किसे है? लोकसभा में घोषणा करना कि
काश्मीर के सिखों को डरने की जरूरत नहीं, उन्हें पूरी सुरक्षा मिलेगी,
आसान है लेकिन सुरक्षा एक एक काश्मीरी सिख को देना क्या सरकार के बूते की
बात है?
कुछ अनहोनी घट जाए तो सरकार श्रद्घांजलि दे सकती है और ज्यादा से ज्यादा
आर्थिक मुआवजा। वह भी किसी की जेब से नहीं, जनता की जेब से ही निकाल कर
दिया जाता है। आतंक के साये में जिन्हें जीना अपने परिवार के साथ पड़ता
है, वे ही जानते हैं कि मानसिक स्थिति कैसी होती है? यदि सरकार का
आश्वासन रक्षा कवच होता तो काश्मीरी पंडित अपने पूर्वजों की धरती छोड़कर
जाते ही क्यों ? जिनका सब कुछ लूट गया, उनके लिए सरकार ने किया ही क्या?
इस देश का प्रधानमंत्री एक सिख हैं और वह काश्मीर को स्वायत्तता देने की
बात कहता है और काश्मीर में आतंकवादी सिखों को इस्लाम स्वीकार करने के
लिए कहते हैं। इससे बुरी स्थिति और क्या हो सकती है?
- विष्णु सिन्हा
21-8-2010