यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

सोमवार, 16 अगस्त 2010

जनप्रतिनिधियों की महंगाई दूर होना चाहिए, जनता की हो न हो

किसी भी राजनैतिक पार्टी के घोषणा पत्र में यह नहीं होता कि चुनाव के बाद
सांसदों का वेतन बढ़ाया जाएगा। इसकी जरूरत इसलिए शायद नहीं समझी जाती
क्योंकि स्वयं का वेतन बढ़ाने की स्वीकृति जनता से प्राप्त करने की तो
कोई जरूरत नहीं होती। जनता का काम है कि वह अपने काम से मतलब रखे। उसके
प्रतिनिधियों को कितना वेतन और कैसी सुविधाएं मिले, यह तय करने में
प्रतिनिधि स्वयं सक्षम हैं। स्वयं को जनता का सेवक बताते हुए चुनाव में
इनकी जबान भले ही न थकती हो लेकिन असल में यह जानते हैं कि वोट देने के
बाद जनता के पास जो मालिकाना  हक है वह उन्हें मिल जाता है। जिस तरह किसी
कंपनी के पदाधिकारी जो वास्तव में कंपनी के कर्मचारी होते हैं, कंपनी के
मालिक बन जाते हैं और अपने वेतन सहित सभी सुविधाएं हासिल करने के स्वयं
अधिकारी हो जाते हैं, उसी तरह हमारे प्रतिनिधि भी होते हैं। भले ही कहा
जाए कि जनता के लिए, जनता के द्वारा, जनता का शासन लेकिन असल में तो शासन
उन्हीं का होता है, जनता जिन्हें चुन लेती है।

मंत्रिपरिषद सांसदों के वेतन बढ़ाने के मामले में फैसला ले रही है। उसके
लिए नियुक्त सांसदों की ही समिति ने अपनी सिफारिशें सरकार से कर दी है।
लालूप्रसाद यादव जैसे नेता का तो कहना है कि वेतन 1 लाख रूपये प्रति माह
होना चाहिए। सबकी अपनी अपनी राय है। अभी सांसदों को 16 हजार रूपये वेतन
मिलता है। 40 हजार रूपये अन्य भत्ता मिलता है। संसद का सत्र चल रहा हो
तो  प्रतिदिन एक हजार रूपये भत्ता मिलता है। बस, ट्रेन, हवाई जहाज में
मुफत यात्रा की सुविधा है। लोकसभा क्षेत्र में होने पर राज्य सरकार वाहन
का भी इंतजाम करती है। दिल्ली में सर्वसुविधायुक्त बंगला रहने के लिए
मिलता है और भी न जाने क्या क्या सुविधाओं का उपयोग ये स्वयं और इनका
परिवार करता है। एक बार जनता ने प्रतिनिधि चुन लिया तो फिर दोबारा चुनाव
हार जाने पर भी सरकार जीवन भर पेंशन देती है। स्वाभाविक है कि वेतन
बढ़ेगा तो पेंशन भी बढ़ेगा।

अंग्रेजों ने जब भारत को आजादी दी थी तो देश की देशी रियायतों को सुविधा
दी थी कि वे या तो स्वतंत्र रहें या फिर भारत या पाकिस्तान जहां चाहें
वहां अपने राज्य का विलय करें। चाहे अनचाहे भी देशी राजाओं ने अपने राज्य
का भारत में विलय कर दिया था और उन्हें इसके बदले विभिन्न सुविधाएं भारत
सरकार ने दी थी। इसमें से ही प्रीविपर्स की सुविधा थी। छोटे बड़े राज्य
की दृष्टि से प्रीविपर्स तय किया गया था। देश में जब इंदिरा गांधी का
शासन आया तो उन्होंने गरीबी हटाओ का नारा दिया। गरीबों में स्वयं को
लोकप्रिय बनाने के लिए 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण  किया गया तो राजाओं के
प्रीवियर्स भी समाप्त कर दिया गए। जनता खुश हुई कि सरकार अमीरों की
सुविधाएं समाप्त कर रही है तो उस धन से गरीबों का कल्याण होगा।
लेकिन जनता को यह तो अब समझ में आ रहा है कि पुराने राजा महाराजाओं की
सुविधा भले ही समाप्त कर दी गई लेकिन अब नए राजा महाराजा पैदा हो गए हैं।
भले ही प्रीविपर्स नाम न हो लेकिन एक बार जनता के द्वारा चुन लिए गए लोग
भी सुख सुविधा पूरे जीवन भोगने के अधिकारी हो जाते हैं। फिर यह पेंशन
पारिवारिक पेंशन है। मतलब प्रतिनिधि के निधन के बाद भी पारिवार को सुख
सुविधा मिलेगी। पूर्व सांसद और विधायक मांग भी यदा कदा करते हैं कि उनकी
पेंशन बढ़ायी जाए। महंगाई बढ़ गयी है। एक व्यक्ति यदि 25 वर्ष की उम्र
में जनप्रतिनिधि सांसद या विधायक के रूप में चुन लिया जाता है और वह
70-80 वर्ष तक जिंदा रहता है तो दोबारा न चुने जाने पर भी 50 वर्ष से
अधिक समय तक पेंशन का अधिकारी बन जाता है।

अधिकांश पुराने राजा महाराजा जो जनता में लोकप्रियता रखते थे, वे भी
राजनीति में आ गए और सांसद, विधायक, मंत्री, मुख्यमंत्री तक बन गए। अब वे
प्रीविपर्स भले ही न प्राप्त कर रहे हों लेकिन जनप्रतिनिधि होने का पेंशन
तो प्राप्त कर ही रहे हैं। जनता की गाढ़ी कमायी से प्राप्त टैक्स की रकम
से ही इन्हें भुगतान होता है। सरकारी कर्मचारियों को तो पेंशन की सुविधा
समाप्त कर दी गयी है। पुराने कर्मचारियों को अवश्य यह सुविधा मिलती है।
स्वास्थ्य सुविधाओं के विकास और मुफत स्वास्थ्य सेवा के कारण वैसे भी
इनकी आयु लंबी होती है। एक समय तो सरकारों के लिए सोच का विषय था कि कहीं
ऐसा समय न आ जाए कि अवकाश प्राप्त कर्मचारियों को पेंशन के रूप में जो धन
दिया जाए, वह कार्यरत कर्मचारियों के वेतन से अधिक हो जाए। वैसे भी सरकार
ने अधिक समय तक लोग जिंदा रहें, इसलिए 100 वर्ष की आयु पूर्ण करने वालों
की पेंशन डबल करने की भी योजना लागू की है। वह दिन दूर नहीं जब चिकित्सा
विज्ञान मनुष्य की उम्र 100 से अधिक करने में सफल हो जाएगा।

सांसद मांग  कर रहे हैं कि सचिव का वेतन 80 हजार रूपये है। इनसे तो कम से
कम उनका वेतन ज्यादा होना चाहिए। कोई नौकरशाह सांसदों से अधिक वेतन पाता
है तो यह सांसदों को उचित नहीं लगता। क्योंकि सांसद अपने आपको किसी भी
नौकरशाह से ज्यादा सम्मानित समझने के हकदार तो हैं, ही। आखिर वे जनता के
द्वारा चुने गए प्रतिनिधि हैं। जनता सवाल जवाब किसी नौकरशाह से तो करती
नहीं। 5 वर्ष तक भले ही नहीं लेकिन चुनाव के समय तो मतदाताओं को जवाब से
उन्हें संतुष्ट करना ही पड़ता है। सरकार किसी की भी बने नौकरशाह तो
सुरक्षित हैं। वे इस कुर्सी  से उठाकर उस कुर्सी पर बिठाए जा सकते हैं
लेकिन कुर्सी तो अवकाश प्राप्त करने की उम्र तक न केवल सुरक्षित रहती है
बल्कि पदोन्नति से ऊंची से ऊंची कुर्सी मिलती है। नौकरशाह को तो 60 वर्ष
की उम्र तक सुख सुविधा भोगने की सुविधा है और अवकाश प्राप्त करने के बाद
भी पेंशन जैसी सुविधा तो मिलती है। इसके साथ ही सरकार की कृपादृष्टि हो
तो कोई न कोई कुर्सी और मिल जाती है।

लेकिन सांसद या विधायक को तो हर 5 वर्ष में जनता के सामने अग्नि परीक्षा
से गुजरना पड़ता है। जनता एक झटके में सर माथे पर बिठा लेती है तो एक
झटके से ऐसा उतार देती है कि फिर पूछने वाला कोई नहीं मिलता। ऐसी
असुरक्षा सुरक्षा का कवच तो निश्चय ही ढूंढ़ती है। इसीलिए अपने कार्यकाल
में वह हर तरह की सुविधा का इंतजाम भविष्य के लिए कर लेना चाहता है। उन
तपस्वी राजनेताओं का युग तो अब है, नहीं। एक बार सुविधापूर्ण जीवन मिल
जाए तो फिर सुविधा छोड़कर जीना कितना कठिन होता है, यह तो भुक्तभोगी ही
जानता है। इसलिए ऐसी सोच का विकसित होना कि पहले वे अपना भला करें,
अस्वाभाविक नहीं है। भले ही नैतिक न हो। जनता महंगाई से पीडि़त है तो यह
कोई नई बात तो है नहीं। जनता का पीडि़त रहना जरूरी है।  नहीं तो जनता सुख
सुविधा में हो गयी तो उनकी जरूरत ही क्या रह जाएगी?

-विष्णु सिन्हा
16-8-2010