यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

मंगलवार, 10 अगस्त 2010

ममता बेनर्जी की ममता भरी छांव में पनाह मांग रहे हैं माओवादी

ममता बेनर्जी का एक सूत्रीय लक्ष्य है। पश्चिम बंगाल का मुख्यमंत्री
बनना। 30 वर्ष से ज्यादा पुरानी वाम सत्ता से प्रदेश को मुक्त कराना।
कहीं कोई लुकाव छिपाव नहीं है, ममता के कृत्यों में। वे कांग्रेस के साथ
सत्ता का सुख भोग सकती है तो भाजपा के भी साथ लेकिन मंजिल को वे कभी नहीं
भूलती और मंजिल है राइटर्स बिल्डिंग से वाममोर्चा को अपदस्थ करना। बहुत
पुरानी बात नहीं है जब यह असंभव की तरह था। ज्योति बसु के मुख्यमंत्री
रहते तो यह पूरी तरह से असंभव था। केरल में भले ही सत्ता पर वाममोर्चा
काबिज होता और बेदखल होता रहा लेकिन पश्चिम बंगाल में यह स्थिति पिछले 30
वर्षों में तो कभी नहीं आयी लेकिन अब सत्ता वाममोर्चे के हाथ से फिसल रही
है। लोकसभा, स्थानीय निकाय, पंचायतों के चुनाव ने तो पूरी तरह से स्पष्ट
कर दिया है कि सिर्फ वक्त की बात है। चुनाव हुए और सत्ता ममता के हाथ में
आयी।

बिना किसी महिला आरक्षण के ही ममता बेनर्जी ने अपने बल पर पश्चिम बंगाल
की जनता को प्रभावित किया है , वह बेमिसाल है। सभी उनसे सहमत हों, यह
जरूरी भी नहीं है लेकिन एक औरत की फौज जैसा चमत्कार तो ममता बेनर्जी दिखा
ही रही हैं। देश के अन्य प्रांतों के नेता उनकी कितनी भी आलोचना करें
लेकिन ममता बेनर्जी को किसी की परवाह नहीं है। पश्चिम बंगाल में ही भीषण
रेल दुर्घटनाएं हुईं। ट्रेनों पर डकैतियां पड़ रही है।ï रेल का हाल ठीक
नहीं है। फिर भी न तो दिल्ली आकर रेल भवन में बैठने में ममता की कोई बहुत
 रूचि है और न केंद्रीय मंत्रिपरिषद में भाग लेने की। उनकी राजनीति का
केंद्र पश्चिम बंगाल है और यही उनकी सोच और सल्तनत की सीमा।
कल लालगढ़ में उनकी रैली में उपस्थित भीड़ को यदि लोकप्रियता का मापदंड
मानें तो ममता बेनर्जी की लोकप्रियता आसमान पर है। उन पर सब तरफ से आरोप
लग रहे हैं कि माओवादियों से मिलीभगत है लेकिन उन्हें इसकी परवाह नहीं
है। कहा तो यहां तक जाता है कि बिना माओवादियों के समर्थन के लालगढ़ में
ममता बेनर्जी की रैली में इतनी भीड़ नहीं आ सकती। मंच से माओवादियों से
हिंसा छोडऩे की अपील करती हैं और वार्ता के लिए आगे आने के लिए कहती हैं।
वे इसके लिए मंच पर आसीन अग्निवेश और मेघा पाटेकर का भी नाम लेती हैं कि
उनके साथ मिलकर वार्ता को आगे बढ़ाए। ममता महाश्वेता देवी का भी नाम लेती
हैं कि उनके साथ मध्यस्थता कर वार्ता करें। हिंसा का रास्ता छोड़कर शांति 
का मार्ग अपनाएं। लालगढ़ वह स्थान है पश्चिम बंगाल का जहां माओवादियों का
इतना प्रभाव है कि कब्जे से मुक्ति के लिए सशस्त्र बलों के साथ लड़ाई तक
हो चुकी है।

ममता लालगढ़ के लोगों से विकास की भी बात करती है। कहती हैं कि वे स्कूल,
अस्पताल सब कुछ खोलेंगी। क्षेत्र के विकास के लिए रेल कारखाना भी
खोलेंगी। मतलब रेल मंत्रालय का पूरा लाभ पश्चिम बंगाल को दिलाएंगी।
स्वाभाविक है कि इसके लिए उन्हें बंगाल की सरकार चाहिए और वह संभव सिर्फ
जन समर्थन से ही हो सकता है। माक्र्सवादी नेताओं में घबराहट तो देखी जा
रही है। आंध्रप्रदेश के विजयवाड़ा में अपनी राष्टरीय परिषद की बैठक
में माक्र्सवादियों की सोच का विषय भी यही था कि कैसे वे पश्चिम बंगाल की
सत्ता को ममता बेनर्जी  के पास जाने से रोकें। माओवादी उनके
कार्यकर्ताओं को मार रहे हैं, यह आरोप तो पुराना है। केंद्र और राज्य
सरकार के संयुक्त अभियान के कारण माओवादी भी समझ रहे हैं कि उन्हें
समर्थन के लिए बुद्घिजीवियों, पत्रकारों, साहित्यकारों से अलग दमदार
राजनैतिक व्यक्ति की जरूरत है। उनकी दृष्टि ममता बेनर्जी पर है और ममता
की दृष्टि उन पर।

क्योंकि माओवादियों के सहयोग से ममता को पश्चिम बंगाल की सत्ता मिलती है
तो देश भर में फैले माओवादियों को पश्चिम बंगाल में सुरक्षित ठिकाना भी
मिलेगा। जिस तरह का माहौल नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में माओवादियों के
विरूद्घ विभिन्न राज्यों में बन रहा है, उसके बाद यदि माओवादियों को
सुरक्षित ठिकाना नहीं मिला तो वे सरकारों के सामने कितने दिन टिक पाएंगे।
वे जानते हैं कि ममता की तृणमूल कांग्रेस वन वूमेन आर्मी है और इनके
सहारे वे पश्चिम बंगाल पर कब्जा कर सकते हैं। राजनीति में न तो स्थायी
दोस्ती होती है और न ही स्थायी दुश्मनी। वक्त और स्वार्थ दोस्त दुश्मन
बनाता है। यह बात तो एकदम स्पष्ट है कि माओवादियों को आज जितनी जरूरत
ममता बेनर्जी की है, उतनी ही जरूरत ममता बेनर्जी को भी माओवादियों की है।
यह तो वक्त बताएगा कि कौन किस पर भारी पड़ता है और कौन अपने उद्देश्य में
सफल होता है? ममता माओवादियों को हिंसा के मार्ग से हटाकर मुख्यधारा में
ला पाती है या सत्ता की चाहत ममता को माओवादियों के साथ एक होने के लिए
बाध्य करती है।

माओवादी क्या वास्तव में हिंसा त्यागने का इरादा रखते हैं? यदि वे हिंसा
त्यागने के लिए तैयार होते हैं तो पश्चिम बंगाल की ही नहीं राष्टरीय
परिदृश्य में ममता का कद बहुत ऊंचा हो जाएगा। अभी तक कोई क्षेत्रीय
पार्टी या नेता अपनी सीमा से बाहर जाकर कोई चमत्कार नहीं दिखा सका है।
हालांकि प्रयास बहुतों ने किया। माओवादी कार्यकर्ताओं ने हिंसा का रास्ता
छोड़कर ममता का साथ दिया तो कई राज्यों में ममता की पार्टी खड़ी हो सकती
है। फिर देश को नक्सल समस्या से मुक्त कराने का बड़ा श्रेय भी उनके खाते
में दर्ज हो सकता है। पहली प्राथमिकता भले ही पश्चिम बंगाल हों लेकिन
दिल्ली में भी वे रेल मंत्रालय की गद्दी छोड़ेंगी तो अपनी ही पार्टी के
किसी को रेल मंत्री बनाएंगी।

यह तो स्पष्ट दिखायी दे रहा है कि इतिहास ममता बेनर्जी का इंतजार कर रहा
है। प्रजातंत्र की यही देन है। प्रजातंत्र जर्रे को आफताब बनाने की ताकत
रखता है। माओवादी जब नेपाल में हथियार छोड़कर चुनावी राजनीति में आ सकते
हैं तो ममता के नेतृत्व में माओवादी नहीं आ सकते, यह तो नहीं कहा जा
सकता। फिर माओवादियों पर केंद्र सरकार और राज्य सरकारों का दबाव निरंतर
बढ़ रहा है। मुख्यरूप से आंध्रप्रदेश के माओवादी नेता ही माओवाद का
प्रचार प्रसार सर्वत्र कर रहे हैं। आंध्र में ही आजाद के मारे जाने और
नित्य माओवादियों के मारे जाने या पकड़े जाने से जो भय माओवादी जनता और
सरकारों में पैदा करते थे, वह भय अब उन तक भी पहुंच रहा है।  माओवादियों
का अलग अलग राज्य की सरकारों से अलअ अलग साबका पड़ता  था तो वे बच निकलने
का रास्ता  निकाल लेते थे लेकिन अब जब समेकित कार्यवाही तय हो चुकी है
तब रोज समय माओवादियों के लिए कठिन होता जा रहा है। ममता के आंचल में
उन्हें पनाह चाहिए तो ममता बेनर्जी इसके लिए तैयार हैं। इसलिए वे आजाद को
मारने पर श्रद्घांजलि भी प्रगट कर रही हैं। वे शायद ऐसी अकेली नेता हैं
जो श्रद्घांजलि प्रगट कर रही हैं। दोस्ती के पीछे छिपा खेल तो स्पट
दिखायी दे रहा है।

- विष्णु सिन्हा
10-7-2010