यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

शनिवार, 7 अगस्त 2010

पार्टी के उस हितैषी से सावधान रहने की जरूरत है जिसने दलितों का धन कामनवेल्थ गेम्स में लगाया

विपक्ष का गंभीर आरोप है कि दलितों का 743 करोड़ रूपया कामनवेल्थ गेम्स
में लगा दिया गया। दलितों के विकास में जो रकम खर्च होना चाहिए थी, वह
रकम यदि वास्तव में कामनवेल्थ गेम्स में खर्च की जा रही है तो यह गंभीर
मामला है। स्वतंत्रता के आंदोलन के समय से ही कांग्रेस दलित उद्घार की
अपने आपको सबसे बड़ी हिमायती बताती रही है। वर्षों तक दलित वोट बैंक के
समर्थन के कारण ही कांग्रेस ने देश और प्रदेशों पर शासन किया है।
ब्राह्मण, दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यकों का समर्थन कांग्रेस को सत्ता
सौंपता रहा है। आज इन सभी का संपूर्ण समर्थन कांग्रेस के पास नहीं रहा।
यही कारण बना कांग्रेस का सत्ता से च्युत होने का। इनका समर्थन विभिन्न
पार्टियों में बंट गया। बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद अल्पसंख्यक तो
कांग्रेस से किनारा कर क्षेत्रीय पार्टीर्यों के साथ हो गए और दलितों के
वोट बैंक पर बसपा ने कब्जा कर लिया। ब्राह्मïण, आदिवासियों का झुकाव भी
भाजपा की तरफ हो गया। जैसी परिस्थिति जिस प्रदेश में निर्मित हुई, उसके
अनुसार इन वर्गों ने कांग्रेस का साथ छोड़ दिया।


उत्तरप्रदेश में पिछले लोकसभा चुनाव के समय मुलायम सिंह यादव ने बाबरी
मस्जिद विध्वंस के लिए जिम्मेदार माने जाने वाले कल्याण सिंह से दोस्ती
कर ली तो मुसलमानों का झुकाव फिर कांग्रेस के प्रति हुआ और परिणाम स्वरूप
भारी संख्या में कांग्रेस को सफलता मिली। मुलायम सिंह ने कल्याण सिंह से
न केवल तौबा कर ली बल्कि इसके लिए मुसलमानों से माफी तक मांगी।
उत्तरप्रदेश में पूर्ण बहुमत की मायावती की बसपा सरकार है। मूलत. दलितों
की पार्टी ने सर्व वर्ग को अंगीकार करने की नीति अपनायी और आश्चर्यजनक
रूप से ब्राह्मïणों को भी अपने पक्ष में कर लिया। बसपा की राजनैतिक ताकत
बढऩे का मूल आधार दलित वर्ग ही है। शायद कांग्रेस  सोचती हो कि दलित वर्ग
का वैसा समर्थन तो उसके पास रहा नहीं, इसलिए दलितों पर धन लुटाने से क्या
फायदा? ऐसी सोच बलवती नहीं होती तो कामनवेल्थ गेम्स में दलितों पर खर्च
किए जाना वाला धन खर्च नहीं किया जाता।


लोकसभा और विधानसभाओं में आरक्षण सिर्फ आदिवासियों एवं दलितों के लिए
हैं। छत्तीसगढ़ में तो आदिवासियों को 29 सीट और दलितों को 10 सीट का
आरक्षण विधानसभा में प्राप्त है। जबकि कुल सदस्य संख्या ही 90 है। दलितों
और आदिवासियों दोनों पर कांग्रेस की पकड़ इतनी कमजोर हो गयी है कि 11
लोकसभा सीटों में से 10 पर भाजपा का कब्जा है तो एक सीट जो कांग्रेस को
मिली है, वह भी आरक्षित सीट नहीं है। मतलब साफ है कि दलित और आदिवासियों
का समर्थन छत्तीसगढ़ में तो कांग्रेस के साथ न होकर भाजपा के साथ है।


विधानसभा में कांग्रेस विपक्ष में है और विपक्ष के नेता रविन्द्र चौबे
है। जो ब्राह्मण है। प्रदेश अध्यक्ष धनेन्द्र साहू है जो पिछड़ा वर्ग से
आते हैं। इसीलिए नए प्रदेश अध्यक्ष की नियुक्ति में अजीत जोगी चाहते हैं
कि किसी आदिवासी को प्रदेशाध्यक्ष बनाया जाए। किसी आदिवासी का यह अर्थ
नहीं होता कि किसी भी आदिवासी को बनाया जाए बल्कि आदिवासी के नाम पर या
तो उन्हें गद्दी सौंपी जाए, या उनकी पत्नी को और यह संभव नहीं तो उनके
समर्थक किसी आदिवासी नेता को। वे भी किसी दलित को प्रदेशाध्यक्ष बनाने की
बात नहीं कहते। क्योंकि दलित को बनाने की बात करेंगे तो उनका नंबर तो इस
पद के लिए लगेगा नहीं।


कल ही कांग्रेस के एक दलित नेता डीपी धृतलहरे ने कांग्रेस का दामन छोड़
दिया और ताराचंद साहू का दामन थाम लिया। धृतलहरे कई बार विधायक और सरकार
में मंत्री भी रह चुके हैं लेकिन इस बार कांग्रेसियों ने उन्हें प्रदेश
प्रतिनिधि के लिए भी योग्य नहीं समझा। अब वे कह रहे हैं कि कांग्रेस और
भाजपा दोनों छत्तीसगढिय़ों की हितैषी नहीं है। जिस तरह से गुटबाजी आज
कांग्रेस पर हावी है, उससे बहुत से कांग्रेसियों का मन कांग्रेस के प्रति
खट्टा  हो रहा है। दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यकों के मन में भी कांग्रेस के
प्रति लगाव कमजोर हो रहा है। कांग्रेस  के कमजोर होने का लाभ अंतत:
क्षेत्रीय पार्टियों को मिलता है। विभिन्न प्रदेश इसके अच्छे खासे उदाहरण
है। जहां राष्ट्रीय  पार्टी कांग्रेस और भाजपा के बदले क्षेत्रीय
पार्टियों का वर्चस्व है और सत्ता में भागीदारी भी है तो पिछलग्गू की तरह
है। यह तो अभी तक सौभाग्य है कि क्षेत्रीय पार्टियों को अभी तक जनता का
ऐसा समर्थन नहीं मिला कि वे सरकार बनाने के या गिराने के मामले में
निर्णायक साबित हों लेकिन कांग्रेसी गुटबाजी की राजनीति में फंसे रहे तो
वह दिन दूर नहीं जब क्षेत्रीय पार्टियों के विधायक और निर्दलीय विधायकों
की संख्या विधानसभा में इतनी होगी कि उनके बिना सरकार बहुमत नहीं प्राप्त
कर सकेगी।


तब छत्तीसगढ़ का हाल भी झारखंड की तरह हो जाए तो कोई आश्चर्य की बात
नहीं। जब तक डा. रमन सिंह छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री हैं तब तक तो भाजपा
के हाथ से सत्ता छीनना कांग्रेस  के बस की बात नहीं लेकिन भाजपा के
असंतुष्ट भी अपना खेल खेलने से बाज तो नहीं आ रहे हैं। आलाकमान के कान
कमजोर हुए और असंतुष्ट अपने क्रियाकलापों में सफल हो गए तो बात दूसरी
है। क्योंकि जिन राज्यों में सत्ता में आने के बाद भाजपा कमजोर हुई है तो
उसका कारण भी भाजपा की आंतरिक गुटबाजी ही रही है। उत्तरप्रदेश इसका बड़ा
उदाहरण है। राजनीति में है तो महत्वाकांक्षा स्वाभाविक है। राजनीतिज्ञ
कहते भी बेहिचक है कि वे कोई संत महात्मा नहीं है लेकिन महत्वाकांक्षा का
तीव्रतर होना जब पार्टी को ही नुकसान पहुंचाने लगे तब लगाम कसा जाना
आवश्यक है। भाजपा इस मामले में अभी तक तो सक्षम साबित हुई है लेकिन
कांग्रेस सक्षम साबित नहीं हुई है।


परिणाम भी सामने है। नेताओं की महत्वाकांक्षा ने ही पार्टी को नुकसान
पहुंचाया है। जरूरत है कि किसी अच्छे, योग्य, प्रतिभाशाली व्यक्ति के हाथ
में कांग्रेस अपनी कमान सौंपे। यह सोचना ही फिजूल है कि कोई जातिवाद से
ग्रस्त नेता पार्टी का भला कर सकता है। ऐसे लोग अंतत: पार्टी के लिए
नुकसानप्रद ही साबित हुए। जब डा. रमन सिंह जातिवाद से परे जाकर लोकप्रिय
हो सकते हैं तो उसका कारण जनता के बीच उनकी स्वीकार्यता है। न कि जिस
जाति में उनका जन्म हुआ। लोगों को  अपना हितचिंतक, शुभचिंतक चाहिए। फिर
वह किसी जाति, धर्म का मानने वाला हो। इससे लोगों का व्यक्तिगत रूप से
कुछ लेना देना नहीं है। कांग्रेस आलाकमान भी इन स्वार्थों से परे नेताओं
में से किसी का चयन करता है तो कांग्रेस के सत्ता में पुन: वापसी की
उम्मीद कर सकता है। नहीं तो वह समय दूर नहीं जब कांग्रेस लोकसभा की एक भी
सीट छत्तीसगढ़ से न जीते और विधानसभा में भी उसे संख्या के मामले में और
नुकसान हो। यह भी सोचना चाहिए कि आखिर दलितों का फंड कामनवेल्थ गेम्स में
खर्च करने की स्वीकृति और सोच किसकी है। वे कौन हितैषी हैं जो पार्टी को
लाभ तो नहीं पहुंचा रहे हैं लेकिन अपने निर्णय से पार्टी को नुकसान अवश्य
पहुंचा रहे हैं।


- विष्णु सिन्हा
7-7-2010

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