यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

मंगलवार, 3 अगस्त 2010

सरकारी एजेंसियों से मकान खरीदने वाले आज भी शोषण से मुक्ति की बाट जोह रहे हैं

भूमाफिया के शोषण से मुक्त कराने के लिए सरकारी एजेंसियां घर और प्लाट
देने के लिए जनता के बीच हैं लेकिन इन एजेंसियों ने क्या वास्तव में
जनता का हित किया है या कर रही हैं? मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह ने वैशाली
नगर उपचुनाव के समय घोषणा की थी कि विकास प्राधिकरण और गृह निर्माण मंडल
के पट्टïदारों को एकमुश्त भूभाटक लेकर जमीन का मालिक बना दिया जाएगा
लेकिन लोग इंतजार ही कर रहे हैं कि कब इन सरकारी एजेंसियों के शोषण से
उन्हें मुक्ति मिलेगी। आज 8 माह से अधिक हो गया लेकिन अभी तक तो
मुख्यमंत्री की घोषणा लागू नहीं हो पायी है। फिर 30 वर्ष पूर्व जिन्होंने
मकान या प्लाट लिया था, उनका पट्टï नवीनीकरण मांगता है और नवीनीकरण का
अर्थ होता है, भूभाटक में वृद्घि। भूमाफिया कितना भी गोलमाल करें लेकिन
जिन्हें प्लाट देते हैं, उन्हें प्लाट का मालिक बनाते हैं। पट्टïदार
नहीं। यदि शोषण करते भी हैं तो एक बार लेकिन सरकारी एजेंसियां तो हमेशा
शोषण का अधिकार रखती है।

जिन्होंने भरी जवानी में 30 वर्ष पहले एक छोटे से घरौंदे के लिए इन
एजेंसियों का विश्वास किया और आज अपने उम्र के उस पड़ाव पर खड़े हैं,
जहां मकान ही उनकी कुल जमा पूंजी है। पेंशन पर बुढ़ापा काट रहे हैं और इस
बढ़ी महंगाई में जीवन आसान नहीं है। और तो और चिकित्सा सुविधा के लिए
बुढ़ापा और धन की मांग करता है तब उनसे पट्टï के नवीनीकरण के नाम पर
बढ़ा हुआ भूभाटक मांगना कितना उचित है? आज जिस जमीन पर ये कालोनियां बसी
हुई हैं, वह भी सरकार की नहीं थी। छत्तीसगढ़ के किसानों की थी। जब जमीन
उनसे लेकर कालोनी बसायी गयी तब प्रति एकड़ 16 हजार रूपये मुआवजा दिया गया
था। मतलब 27-28 पैसे वर्ग फुट की दर से जमीन ली गयी थी। बेचा गया था
40-50 रूपये फुट। उस पर भूभाटक।

यदि कोई अपना मकान या पट्टï की जमीन बेचने जाए तो उसे इन एजेंसियों से
अनापत्ति प्रमाण पत्र चाहिए और जिसके बदले विक्रीत कीमत का दस प्रतिशत ये
एजेंसियां लेती हैं। भूभाटक अलग बढ़ जाता है। आज देवेंद्र नगर में ही
कलेक्टर दर रजिस्ट्री का 14-15 सौ रूपये फुट है। जिसका अर्थ होता है करीब
150 रूपये अनापत्ति प्रमाण पत्र के लिए विकास प्राधिकरण को दिया जाए। फिर
उसी के अनुसार 2 प्रतिशत की दर से भूभाटक दिया जाए। मतलब साफ है कि आम
आदमी तो इन कालोनियों की जमीन खरीदने के विषय में सोच भी नहीं सकता। कभी
आम जनता की सुविधाओं के नाम पर इन कालोनियों का विकास किया गया था लेकिन
आज ऐसी स्थिति नहीं है। विकास के नाम पर इन कालोनियों को नगर निगम को
सौंप दिया गया है। वह भी संपत्ति कर, जल मल कर के रूप में टैक्स वसूल
करती है।

नित्य इन कालोनियों की दुर्दशा के विषय में समाचार पत्रों में समाचार
छपते हैं। लगता नहीं कि समस्याओं को सुलझाने के लिए कोई गंभीर प्रयास
किया जाता है। पिछले दिनों जब अवैध कालोनाइजरों पर सरकार ने शिकंजा कसा
और उनकी लंबी चौड़ी सूची समाचार पत्रों में छपवाकर अवैध कालोनाइजर का
धंधा एक तरह से बंद कराने का सरकार ने प्रयास किया तब लगा था कि सरकार
लोगों को शोषण से मुक्त कराना चाहती है लेकिन असल में देखें तो अवैध
कालोनियों में रहने वाले ज्यादा स्वतंत्र हैं। अवैध कालोनियां घनी आबादी
में बदल जाती है और फिर वोट बैंक की राजनीति सभी तरह की सुविधाओं का उनको
हकदार बना देती है। सोच विचार तो इस बात पर होना चाहिए कि अवैध कालोनियां
बनती क्यों हैं? लोग इनके प्रति आकर्षित क्यों होते हैं? प्रारंभ में भले
ही असुविधाजनक ये कालोनियां हों लेकिन देर अबेर सुविधाएं भी इनको मिल ही
जाती है।

गृह निर्माण मंडल और रायपुर विकास प्राधिकरण ने रायपुर में ही बड़ी बड़ी
आवासीय कालोनियों की योजना प्रारंभ की है। विकास प्राधिकरण की कमल विहार
योजना तमाम विरोधों को पार कर अब प्रारंभ होने की स्थिति में आ गयी है।
कहा जा रहा है कि 4-5 वर्ष में यह कालोनी पूरी तरह से अस्तित्व में आ
जाएगी लेकिन यहां मिलने वाले प्लाटों के संबंध में दर को लेकर तरह तरह की
चर्चा है और कहा जा रहा है कि 1 हजार रूपये से लेकर 15 सौ रूपये वर्गफुट
में प्लाट विकास प्राधिकरण बेचेगा। इतनी कीमत पर हर कोई तो प्लाट खरीद
नहीं सकता। इनके आसपास जो कालोनियां निजी क्षेत्र में विकसित हो रही है,
उनकी दर 4 सौ रूपये फुट है और वे पर्याप्त रूपये कमा रहे हैं। फिर निजी
क्षेत्र के बिल्डर जमीन सहित मकान का मालिक बनाते हैं जबकि सरकारी
एजेंसियां इतनी महंगी जमीन देकर भी पट्टïदार ही बनाती है और शोषण का
दुष्चक्र चलता रहता है।

डा. रमन सिंह जैसे संवेदनशील व्यक्ति के मुख्यमंत्री रहते इस तरह का शोषण
किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। जिसकी जमीन योजनाओं के लिए ली जाती है,
उनके शोषण की भी इंतहा नहीं है। बदले में उसे जमीन 35 प्रतिशत से लेकर 40
प्रतिशत दी जाती है तब भी वह पट्टïदार ही बनता है और उससे विकास शुल्क
दी गई जमीन का अलग से वसूला जाता है। विकसित प्लाट के रूप में जमीन का जो
टुकड़ा दिया जाता है, उसका भी विभाजन प्लाट की साइज के रूप में विकास
प्राधिकरण ही करता है। जमीन पर ई. डब्ल्यू. एस. बनेगा या एलआईजी या
एमआईजी यह जमीन के बदले जमीन प्राप्त करने वाला नहीं करता बल्कि विकास
प्राधिकरण करता है। मतलब जमीन किसी की और मनमानी योजना किसी की।
जब इन एजेंसियों का गठन किया गया था तब शहरों में आवासीय सुविधा का विकास
लक्ष्य था। कम कीमत पर अच्छे मकान उपलब्ध कराना। इन एजेंसियों के मकानों
में रहने वाले इसकी गुणवत्ता से अच्छी तरह से परिचित हैं। चंद लोगों को
नौकरी लोगों को परेशान करने का अच्छा खासा फल मिल चुका। पदों पर बैठने
वाले अच्छी खासी कमायी कर चुके। भुक्तभोगियों की कौन सुनेगा और फिर ये उस
वर्ग से आते है जो शक्तिशाली लोगों का विरोध नहीं कर सकते। इस
व्यवस्था को तोडऩे के लिए पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने रायपुर विकास
प्राधिकरण को रायपुर नगर निगम में मिला दिया था और गृह निर्माण मंडल का
गठन ही नहीं किया था। वे अच्छी तरह से परिचित थे कि इन संस्थाओं में क्या
होता था? सरकार ने अपने लोगों को उपकृत करने के लिए इन संस्थाओं का
पुनर्गठन कर दिया। अभी भी सरकार चाहे तो सब कुछ ठीक ठाक कर सकती है लेकिन
वह करना चाहे तब न ?

- विष्णु सिन्हा
3-7-2010

1 टिप्पणी:

  1. सरकार का मतलब ही आज आम जनता का हर तरीके से खून चूसना हो गया है ,अब तो एक ही उपाय है सामूहिक सत्याग्रह और देश के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति से भी पूछा जाय की आप आम लोगों के कल्याण का कौन-कौन से काम रोज करते हैं उसका व्योरा रोज नेट पर प्रकाशित कीजिये अन्यथा आपको तनख्वाह लेने का अधिकार नहीं ...?

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